इस फ़न-ए-आज़माइश को क्या कहिए,
कभी जाने-जहाँ, कभी अंजाने को — क्या कहिए।
तिरछी नज़र से घायल किया तूने मुझे,
हुनर फिर नज़रें फेर लेने को — क्या कहिए।
मुसलसल मुलाक़ातों में बही थीं मोहब्बतें रवानी,
नज़रअंदाज़ी के पैग़ाम भेजने को — क्या कहिए।
दीद-ओ-जल्वे का हुनर,है तेरी तारीख़ में क़ैद,
इशारा-ए-दीद भी न मिलने को — क्या कहिए।
पाक दरिया किनारे जब इश्के इदराक हुआ रौशन,
अहद-ए-वफ़ा किए, वादे टूटने को — क्या कहिए।
कभी चाय की चुस्की में हँसी थी तेरे नाम की,
अब तनहा बैठे फीकी चाय पीने को — क्या कहिए।
वो वादे-वफ़ा कर के भी गुफ़्तगू में न आए,
फिर हमें बार-बार आज़माने को — क्या कहिए।
रास्ता-ए-वादियों में हुई थी मुहब्बत की पहल,
बेमुलाक़ात ही अब बिछड़ने को — क्या कहिए।-
तेरी यादों में हमने दिल के उजाले गंवा दिए,
चलो अब रात भी तेरी यादों में क़ुर्बान कर दें,
कोई ख़बर ये बयारें सरगोशियों में दे जाएं,
कि तू अब चहक रही है, बस इतने में सब्र हो जाए।-
दिलदारियां...
क्या करें अब, प्रिये—
ज़िंदगी इतनी कड़वी हो चली है,
कि मय भी अब शहद-सी लगती है।
डर है — कहीं मधु से भी मेह न हो जाए,
इसलिए ठंडा पानी भी फूँक-फूँक के पीते हैं।
हसरत-ए-ज़िंदगानी ऐसी हो गई है,
कि तलब भी अब सीने में ही छुपा लेते हैं।
तुम ये गुमान मत करना कि ज़ुबाँ खामोश है—
तुम्हारी यादों की ख़ुशबू से
ये दिल आज भी बाग़-बाग़ रहता है।
पर क्या कहें,
इस दुनिया से, इतनी दिलदारियाँ देखी नहीं जातीं।-
नख़रे उनके शरारों से भी ज़्यादा फ़रोज़ाँ निकले,
अब तो हर चीज़ आपकी नज़र से हसीं लगती है।-
मैं जुगनू हूँ, तू जुगनी है,
मैं जुगनू हूँ, तू जुगनी है,
मैं जागता रातों में,
तू विचरती तारों पे,
नीलम के आसमान पर,
चाँद की सैर करती है।
मैं तुझे चकोर सा देखता,
बस देखता रह जाता हूँ,
तेरी लौ में जलता हूँ,
पर तुझ तक पहुँच नहीं पाता हूँ।-
आपके शब-ए-ग़म की महफ़िलों के थे दीवाने बहुत,
और हम — तन्हा जुगनू बनकर, लश्क़ारे बिखेरते रहे।
इन अश्कों के सैलाब में,
डूब जाएँगी किश्तियाँ उम्मीद की।
हमारी याद जब भी आये —
मिल लिया करो, कुछ बातें किया करो।
और अगर इतना भी मुमकिन न हो,
तो एक गुमनाम ख़त ही लिख दिया करो।-
तुम नहीं तो —
हर कहानी, अधूरी रह गई कोई ज़िंदगानी सी लगती है।
हर प्यास, हर ‘काश’, हर प्रयास — कुर्बानी सी लगती है।
ये कविता, ये तुकबंदियाँ — अब अनजानी सी लगती हैं,
ग़ज़लें, नग़मे, छंद — सभी रूठी-रूठी बेगानी सी लगती हैं।
वक़्त ने जो दिखाए थे तुम संग होने के हसीन सपने —
ख़्वाबों की शरारती तहरीरें — सब नादानी सी लगती हैं।
ये शजर, ये नदी, ये बयारें, ये ऋतुओं की रवानियाँ —
बेख़ौफ़, बेधड़क — अब चुभती क़ातिलानी सी लगती हैं।
अब ख़्वाहिशों ने तलब-ए-लम्स की राहें छोड़ दी हैं,
रिश्तों की खाना-पूर्ति — महज़ एक अनमानी सी लगती है।
‘वृहद’-ऋतुओं की तासीरें — लाश पर नई परत छोड़तीं,
अंतिम संस्कार को अगुआनी करतीं, यजमानी सी लगती हैं।-
गंगा की शांत लहरों को
किनारों से सब निहारते हैं,
डूबने का अंजाम वही जानते हैं,
जो भंवरों से मात खाते हैं।-
प्रेम:
प्रेम संदेह भी है,
प्रेम आस्था भी है,
प्रेम — संदेह से
आस्था तक का रास्ता भी है।
प्रेम संशय है,
प्रेम समाधान है,
प्रेम — संशय से
समाधान तक का ध्यान भी है।
प्रेम उत्कंठा है,
प्रेम निवारण है,
प्रेम — उत्कंठा से
निवारण तक की उपासना भी है।
प्रेम उत्प्रेरक है,
प्रेम सम्पूर्ण है,
प्रेम — उत्प्रेरणा से
सम्पूर्णता तक की कविता है।-
🌹फ़ेहरिस्त-ए-मसाइब 🌹
मसाइब–ए–उल्फ़त, ढूंढती रहीं तेरी राहें जानाँ
फ़ेहरिस्त-ए-मसाइब की न घटती किश्तें जानाँ।
कभी नक़्श बन के सीने पे उभरते तेरे हर्फ़ जानाँ,
कभी ख्वाबों में तामीर हुए तेरे लम्स के रिश्ते जानाँ।
तेरी याद की ताबीरों में कुछ तल्ख़ियाँ थीं जानाँ,
फिर भी दिल ने लुटा दीं मोहब्बत की नेमतें जानाँ।
ज़िक्र तेरा किया तो अश्क़ों ने भी चालें बदलीं,
लरजते लब न कह पाए दिल की खामोश बातें जानाँ।
गुज़िश्ता लम्हे भी तन्हाई से शिकवा करते रहे,
हर साँस में महकती रहीं तेरी उलझी सिसकें जानाँ।
‘वृहद’ की तहरीरों में तू आज भी यूँ बसी है,
हर मिसरे से छलकती हैं तेरी नज़्में जानाँ।-