आखर-आखर गूँथकर, शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।
गौरी पुत्र गणेश आपके,सम्मुख शीश नवाऊँ।
भावों की हल्दी माड़कर,अंतस्तल में आकार दिया।
शिव सपूत गजानन तेरा,आस्था से अलंकार किया।
दिव्य दिवस पुनीत आज,वंदन कर कृपा कमाऊँ।
आखर-आखर गूँथकर, शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।
हरी उमंगें हरी दूब सी, उनसे करूँ प्रसाधन।
पान समान ह्रदय से, करती हूँ आराधन।
कल्पनाओं के मोदक से, मैं तुमको भोग लगाऊँ।
आखर आखर गूँथकर, शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।
भाव सरित बहे सदा, स्नेहांजलि है ये अर्पित।
त्रुटियों का शमन हो,सृजन रहे आलोकित।
अनुकंपा की चाह लिए,काव्य कुसुम चढाऊँ।
आखर-आखर गूँथकर,शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।
-