वंदना मोहन दुबे   (वंदना मोहन दुबे)
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Joined 10 January 2019


Joined 10 January 2019


आखर-आखर गूँथकर, शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।
गौरी पुत्र गणेश आपके,सम्मुख शीश नवाऊँ।

भावों की हल्दी माड़कर,अंतस्तल में आकार दिया।
शिव सपूत गजानन तेरा,आस्था से अलंकार किया।
दिव्य दिवस पुनीत आज,वंदन कर कृपा कमाऊँ।
आखर-आखर गूँथकर, शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।

हरी उमंगें हरी दूब सी, उनसे करूँ प्रसाधन।
पान समान ह्रदय से, करती हूँ आराधन।
कल्पनाओं के मोदक से, मैं तुमको भोग लगाऊँ।
आखर आखर गूँथकर, शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।

भाव सरित बहे सदा, स्नेहांजलि है ये अर्पित।
त्रुटियों का शमन हो,सृजन रहे आलोकित।
अनुकंपा की चाह लिए,काव्य कुसुम चढाऊँ।
आखर-आखर गूँथकर,शब्दों के सुमन चढ़ाऊँ।




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अपने सपनों के लिए, जीता है इंसान।
हारना, थकना,उठना,मूल मंत्र पहचान।।

निराशा शिखर पर रहे,सदा समर्पित भाव।
लगन प्रयासों में रहे, सबसे बड़ा सुझाव।।
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दोहे

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जहाँ से लौटना मुश्किल हो।

मंज़िल तो हो नज़दीक मगर,
दिल की खुशियाँ बोझिल हों।

सफर वो ही अच्छा है जहाँ,
साथी हो न केवल मुक़ाबिल हो।

कभी हिसाब करने बैठो तो,
खाली न रहो हाथ में हासिल हो।

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माँ की पुण्यतिथि

पलकों पर जो बॉंध टिका था,संयम टूटा फिर बह निकला।
जब-जब तुमको याद किया माँ-अक्षर आँसू में डूबकर निकला।

अंबर से असंख्य दुआएँ आती हैं,अलाएँ-बलाएँ सब टल जाती हैं।
जब-जब तुमको सिमरूं माँ-अपार शक्ति मुझे मिल जाती है।

मन-बगिया में स्मृति की फुलवारी,नेह धार से सिंचित है उर-क्यारी।
स्नेह-सुमन चढ़ा तुमको पूज लिया-फिर तस्वीर उठा तुम्हें अंक में भींच लिया।

माँ देखो तुमको फिर याद किया।
माँ देखो तुमको फिर याद किया।
🙏🙏🙏🙏🙏

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माँ की पुण्यतिथि

मन को पंछी बना,चिठिया माँ के देस भेजी है।
उस चिठिया में हर बात,मन की लिख भेजी है।

हर आखर प्रेम की,अश्रुधार से सींचा है।
माँ मैंने उस पाती में,संवेगों का उदगार लिख भेजा है।

उस पंछी से वात्सल्य में,पगी कुछ बातें कर लेना।
मन-बरगद की शाख़ों में,बिठा ठंडी छाँव में झुला देना।

कुछ राह दिखा देना,उलझे प्रश्नों को सुलझा देना।
अपनी अमृतबानी का रस,प्यासे मन पंछी को पिला देना।

उस आख़िरी रात जो बिन मिले,बिन कुछ कहे चली गई थी।
उसका कोई संदेसा हो तो,माँ तुम ज़रूर भिजवा देना।
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सुख तितली है,सुख है भँवरा,कभी रहे न टिककर,
इत-उत डोले,तुमको तौले,न इतराओ प्रियवर।
राह कर्म की बड़ी प्रबल है,,गिरो उठो पर चलो निरंतर,
संघर्षों से घबराना कैसा ,जीवन बने इन्हीं से हितकर।
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माथे पर रोली अक्षत मुँह में हँसे मिठाई,
किया रोचना बहना ने भाई दूज मनाई।
अलायें बलायें दर पर कभी ना आयें-
दुआ माँगती बहना सदा सलामत रहे भाई।
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लघु स्वरूप जीवन का,अनंतम है विस्तार,
छोटे- छोटे पलों से, होता है साकार।
ऊर्जा, आशा, प्रेरणा,पथ में संबल बनती हैं-
समावेश से इनके ,सुरभित हो संसार।
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वंदना मोहन दुबे


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दो अक्षर हिंदी में होते,प्रेम सदा हिंदी को दो
चार चाँद लग जाते तब,जब काव्य हिंदी में हो
यति,गति,लय,विराम,तुक,मात्रा महत्वपूर्ण हैं
छ: बातों को जो ध्यान में रखें सृजन सुंदर हो
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सम संख्या दो,चार,छ: पर मुक्तक

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देखने में तो बहुत आसान है,
भरम जिसने पाले वो इंसान है।
दूसरों को कम आँकते रहना-
ये असुरक्षा भावना की पहचान है।
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