वो न अपनी सुनता है , न मेरी सुनता है
उसके कुछ फीके ख्वाब है बस उसको बुनता है
बेवजह की बातों में उलझ गए है हम दोनों
मैं अपनी कहता हूं, वो अपनी सुनता है.....-
तारीख में लिखी जाएगी शिकस्त मेरी
कि दुनिया जीत कर भी हारे है एक सख्स से......-
कितना अजीब होती है इंसान की फितरत
निशानियों को महफूज़ रखकर इंसान खो देते है....
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खुद से जीतने की ज़िद है मुझे
खुद को ही हराना है
मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की
मेरे अंदर एक जमाना है......-
तेरे जैसा कोई मिला ही नहीं
कैसे मिलता कोई था ही नहीं
तू जहां तक दिखाई देता है
उसके आगे मैं देखता ही नहीं
मुझपे होकर गुजर गई दुनिया
मैं तेरी राहों से हटा ही नही
पढ़ता रहता हूं रात दिन उसको
उसने जो ख़त कभी लिखा ही नहीं
तेरे बारे में सोचने वाला
अपने बारे में सोचता ही नहीं......
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राहों में कांटे थे, फिर भी वो चलना सीख गया
वो मुसाफिर ऐसा था, हर दर्द में जीना सीख गया.......-
माना तेरी दीद (नज़र) के काबिल नहीं हूं मैं,
तू मेरा शौक देख, मेरा इंतजार देख.......-
कहां से लाऊं वो लफ्ज़, जो तुम्हे सुनाई दे
दुनिया देखे चांद को , मुझे तो सिर्फ तू दिखाई दे....
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