दूर रहें,हम पास रहें
शहद से घुलते
मीठे एहसास रहें
बचपन के रंगों में रंगे
अपनेपन उमंगो से सजे
एक दूजे के खास रहें
नज़्म सी ये प्रेम पाखी
हमें जोड़ती ये मीठी राखी
बस यही हममें
मिठास रहे
रिश्ता ये हमेशा
हमेशा खास रहे.!!-
"किसी सुबह हम जागे तो नया आसमां हो,
नई जमीं पे नये सफऱ में मेरा हमनवाँ हो,
दो प्याली चाय हो, और इश्क़ उसमें घुला हो,
हवाओं में हो मोह्हबत, फिर ना कभी शाम हो l"❤-
मिला करो ना..
मिला करो ना !
कुछ लम्हों की दौलत लेकर
अपनेपन की बाँह पसारे
छोड़ कर रूढ़िवाद
नवयुग का आगाज़ करेंगे ,
मिला करो ना !
जीवन का संगीत सुनाती
कल - कल बहती नदी किनारे
मखमल जैसी हरी दूब पर
दौड़ लगायें , मन बहलायें ,
कभी बैठ कर , कभी लेटकर ,
धारा का मृदु गान सुनेंगे ,
मिला करो ना !!
कहीं किसी तरुवर के पीछे
जिसमें अपना प्रेम कुँवारा
आलिंगनबद्ध हो जाता था
भूल जगत के सब नियमों को
दोनों मनमानी करते थे
आँख बन्द कर , बिन वाणी ही
द्रवित दिलों के भाव बहेंगे
मिला करो ना !!!-
सोचा था मासूम हो तुम
पर तुम तो कलाकार निकले
कलाकारी करके क्या करेंगे
खेल तो हमारी किस्मत ने खेला है-
एक शाम
एक शाम अपने में डूबता चला जा रहा हूँ
मुझमें घर लौटती चिड़ियों का शोर
मुझमें शान्त जल पर पड़ती परछाइयों की स्थिरता अपने ही दरवाजे पर अपनी ही आहट
दूर से आती अपनी ही आवाज़ में सुना हुआ एक नाम अपने ही कन्धों पर उगता खर - पतवार
यह कैसी है शाम
जो इतनी तरह से मेरी होती जा रही ।-
कभी कभी पूछता है मेरा अंतर्मन मुझसे कि अंधेरे की प्रतीक ये रातें मुझे इतनी प्रिय क्यों हैं ? प्रकाशयुक्त उस दुपहरी का क्या दोष कि तू उससे इतनी घृणा करता है ? पूछता है मेरा अंतर्मन कि क्या तू उचित मार्ग पर चल भी रहा है या यूं कहे रात्रि के तम में बहकर - मार्ग भी अनुचित चुन लिए तुम ? निःशब्द सा मैं , बन बेबाक़ , स्वयं से जूझता हूँ , मग़र संतुष्टिजनक उत्तर नहीं ढूढ़ पाता ! शायद व्यस्त जीवन से भरपूर ये दुपहरी मुझे न पसंद या कहे कि रात्रि की वो शांति से मेरे प्रेम का जोड़ जिसमे बस मैं , मेरी सादगी , मेरा अकेलापन - इस भौतिक जहां की सारी चुनौतियो से परे ! नहीं समझ आता कि ये मुझे मेरे अंदर खुद को तलाशने का इक ज़रिया है , या महज़ ज़िम्मेदारियों और चुनौतियों से दूर जाने का ज़रिया ! नही समझ आता कि ये घने अंधेरे में खो जाने का परिणाम है या इस अंधेरे में उस दुपहरी के प्रकाश को खोजने का जुनून ! बस नही आता मुझे समझ , ख़ुद में ही उलझा हु मैं , या सुलझ रहा हूँ खुद - ब - खुद मैं ! बस ख़ुद को ही नहीं समझ पाता मैं !
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रफ़्ता रफ़्ता खिसकती है ये # जिंदगी,
देखते ही देखते, नज़ारे बदल जाते हैं।-
वे दोनों नदी के दोनों किनारे जैसे थे,
कहीं चलते-चलते एक दूजे की ओर मुड़ते तो थे पर मिलते कभी नहीं थे……-
'अब सुबह नहीं होती रात बीत जाती है ,
सूरज चढ़ता है , ढलता है हमेशा की तरह
पर मुझे जिस सुबह का इंतज़ार है
वह ही नहीं आती
पहले वाली सुबह अब क्यों नहीं आती ।'-
ख़यालों में धुंधलाता हुआ
एक मकान है कच्चा सा,
गहराते सन्नाटों में लिपटी
एक शाम है, हंसती हंसती
और चलती हवाओं में
भीनी तुम्हारी महक सी है
उन ख़यालों के पार एक दिन
मिलूंगा, मैं तुमसे आकर
तब तक मेरी ये चुप्पियां ही
इश्क़ तुमसे, इश्क़ तुमसे..-