विवेक विहान   (✍🏼 विवेक विहान)
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Joined 30 April 2018


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Joined 30 April 2018

गिरते सम्भलते ये उमर रही है
ज़िंदगी है साहब, गुज़र रही है

सब कुछ खामोशी से देखते आए हैं
ऐ ज़िंदगी हममें इतनी सबर रही है

वो सोचते है ये नरमी से पेश आएगी
मगर इसमें दोपहर की लहर रही है

अरसे से सब सुकूँ तलाशते रहे हैं
वो क्या चाहते हमें सब ख़बर रही है

जो ना मिला उसका कोई ग़म नहीं
मिलने पे अफ़सोस सबको मगर रही है

खुले पन्नों को तो हम पढ़ लेते मगर
बंद लिफाफों पे हमारी नज़र रही है

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क्या हुआ सब कुछ तो है यहाँ
फिर मुझे किस बात की तलाश है
क्या हुआ सब ही तो हैं यहाँ
फिर ज़मी पर मेरी क्यूँ लाश है

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खामोश थी हवाएं मंजिल के थे क़रीब हम
इतने क़रीब होकर भी कितने थे ग़रीब हम

इस सफ़र का सफ़रनामा किसको सुनाएँ
दोस्तों को छोड़ निकल गए थे अजीब हम

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शाम होती है दिल में इक ख्याल आता है
वो तो आता नहीं, मन में मलाल आता है

कल गुज़र गया, कल का किसको पता है
मेरे ज़हन में क्यूँ अक्सर ये सवाल आता है

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इक शाम कुछ ऐसी, के जैसे कोई शाम ना हो
हम बस बैठे रहें इन राहों में और आराम ना हो

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न सुकूं है न माहौल फिर भी लिख रहा हूँ
न ख़रीदार है न बाज़ार फिर भी बिक रहा हूँ
बिकने की हुनर नहीं है मुझमें मग़र
मैं बेचने में हूँ माहिर इसलिए बिक रहा हूँ

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ज़िंदगी महज़ मंज़िलों और महफ़िलों की गिनती तो ना थी
जो वो थी वो महफ़िलों और मंज़िलों की गिनती तो ना थी...

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सुकून मिले तो बहुत कुछ कर लें
और सुकून पाने के लिए बहुत कुछ करना है

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कभी सफ़र का मैं हूँ, कभी सफ़र मुझसे है,
कभी सफ़र का है तू, कभी सफ़र तुझसे है

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ज़िंदगी चल रही है, गुज़र बसर सब कर रहे हैं
जिसे जितना मिला उसी में सबर सब कर रहे हैं

ज़हर उतना ही है, कभी कम कभी ज़्यादा लगता
मर मर के ज़िंदगी जीने की फ़िकर सब कर रहे हैं

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