पिता
एक अदृश्य शक्ति सी काम करती है,
पिता की साधना , कब आराम करती है,
अपने बीज को , अपना दीयित्व मान,
वो लगा रहता है ,
नन्हे अंकुरित बीज को पौधा बनाने में
रक्षा कर पौधे की उसे वृक्ष बनाने में,
संसाधन जुटाता रहता है,
उसके लालन पालन में ,
दे देता है तिलांजलि ,
अपनी इच्छा बताने में,
गर्म धूप सा जलता है उसे बढ़ाने में,
स्वयं बन जाता है मिट्टी और पानी,
ज़मीं नये पौधे को दिलाने में ,
हवा का झोंका भी वही है ,
ग़लतियों पर रोकता भी वही है ,
अनुभव बाँटता रहता है ,
बिना यह भाव की,
उसके हिस्से में अच्छाई आयेगी या बुराई,
उसका योगदान , क्या स्मरण रह पाएगा ?
एक पिता जो उलझा है परविरश में ,
वो बच्चों को कहाँ दिख पाएगा ?
वो एक अदृश्य शक्ति सा ,
एक जीवन संवारने लगता है,
और वो जानता भी है की,
पिता बनने की क़ीमत नहीं होती ,
यह तो आहुति है स्वयं की,
ख़ुद को न्योछावर कर,
छोड़ जाना है अपना बीज ,
एक अदृश्य शक्ति, अदृश्य मूल्य,
अदृश्य संस्कार
और अदृश्य आधार के साथ ,
पिता होना अदभुत अनुभव है,
उसके होने से ही जीवन का ,
होता नव उदभव है “
विवेक शर्मा
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