है ढेर सारा शोर उनमें ...
है तन्हाई भी ...
वो पुराने बाजार की तंग गलियाँ ...
मुझको मुझ सी लगती हैं ...
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इन चुपचाप सर्द रातों में ...
पन्ने पलटने की ...
खिड़कियों से टकराते झोकों की ...
गली में आते जाते कदमों की ...
रसोई में नल से टपकती बूंदों की ...
ये भीनी भीनी आवाज़ें भी साफ़ झलकती हैं ...
वैसे ही जैसे इक खाली मकान ...
भर जाता है धूल से दरारों से ...
और इक खाली दिल ...
यादों से भरा रहता है ...
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उसने पूछा तुम क्या होना चाहते हो मेरे लिए ...
बादल, पहाड़, समंदर, धूप, छांव, बारिश क्या ? ...
मैंने कहा 'घर' ...
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कुछ बरस पहले तक ...
कत्थई से कपड़े पहने ...
एक आदमी गुलाबों से भरा बस्ता लाता था ...
कभी अपने कंधे पर लटका कर ...
तो कभी साइकिल पर बांध कर ...
और गली गली घर घर जा कर ...
वो लोगों के हाथों में गुलाब थमा देता था ...
वो सारे घर और गलियां ...
खुशबुओं और मुस्कुराहटों से महका करते थे ...
उन फूलों की गिरी हुई पत्तियों से रास्ते सजा करते थे ...
मैंने सुना है कि कुछ लोग उस आदमी को डाकिया ...
और उन गुलाबों को प्रेम पत्र भी कहा करते थे ...
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उन्हें चाँद को तकता देख ...
रात कुछ इस फ़िकर मैं है ...
के कहीं उसका होना ...
बेवज़ह ना हो जाये ...
के कहीं उनकी आंखों में बसे ...
छोटे छोटे ख्वाबों की इकठ्ठी रौशनियों से ...
सुबह होने से पहले ...
सुबह ना हो जाये ...
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रोज़मर्रा के कामों से ऊब जाए ...
तो थोड़ा टहलने ले जाया कर ...
तेरा दिल इक आज़ाद परिंदा है ...
उसे मशीनों सा अहसास ना कराया कर ...
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चाँद तोड़ कर लाने की जगह ...
यूँ ही किसी दिन घर लौटते हुए ...
तुम उसके लिए लाना गुलाब ...
लाना अदरक जो वो लेना भूल गयी है ...
वो एक पैर की पायल लाना ...
जो टूटने की वजह से पेहेनना छोड़ दी उसने ...
लाना वो दुपट्टा जो बहुत पसंद था उसको ...
मगर ज़रा सा महँगा होने की वज़ह से खरीदा नहीं ...
चाँद तोड़ कर लाने की जगह ...
कभी कभी अचानक गले लगा कर उसको ...
तुम उसके चेहरे पर हंसी और दिल में सुकून लाना ...-
सोती हैं आंखें दिनभर की ओढ़े थकान मगर ...
ज़हन में जो बहते हैं वो लफ्ज़ नहीं सोते ...
खो जाया करते हैं गुलाब जो मिले थे उनसे मगर ...
उनकी यादों से महकते गुलिस्तान नहीं खोते ...
हो जाते हैं हम ज़माने के बड़ी आसानी से मगर ...
सुबह से शाम होने तक भी हम खुद के नहीं होते ...
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अलमारी में रखे कुछ सिक्कों को ज़ेबों में रख कर ...
इक ज़ेब को तन्हाई और इक को आधे इश्क़ से भर कर ...
निकलते हैं शाम ढले उनकी मोहोल्ले की गली से हम ...
ढूंढते हैं चाँद को उस गली की बालकनी में अक्सर ...
खनक सिक्कों की अचानक तभी हमसे कुछ कहती है ...
जो देखे हैं सपने करोगे उन्हें तुम पूरा कब तक ...
कदम धीमे और ज़हन खयालों से भरने लगता है ...
मेरे चाँद और मेरे ख्वाबों का जमघट लग जाता है मन पर ...
गली के दूसरे कोने में रुक कर कुछ खाने को लेते हैं ...
लौटते हुए अपने कमरे की खिड़की से आते हैं वो नज़र ...
घर आते आते सिक्कों की ज़ेब खाली और इश्क़ की पूरी भर जाती है ...
करते हैं फिर गुफ्तगू हम अपने सब ख्वाबों से मिल कर ...
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दोनों की बेचैनियाँ खामियां डर दर्द नफ़रतें ज़ख्म ...
सब लगने लगे हैं खूबसूरत जब से ...
पिरोये हैं सब अहसासों के धागे इश्क़ की सुई से ...
जब से दोनों ने इश्क़ का दोहर ओढ़ा है ...
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