विवेक प्रताप सिंह   (विवेक प्रताप सिंह)
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Joined 7 January 2018


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Joined 7 January 2018

भूत से ज्यादा इंसान डरावने होते हैं,
कब क्या रंग दिखा जायें..........

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अगर सीता सोने की हिरन चाहेगी
तो राम से बिछड़ना तय है साहब!

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आज़ाद तमन्ना हूँ, आज़ाद ही रहने दो,
बन के ऊँची मौज, दरिया में बहने दो।
न कर सकता कोई कैद, अरमानों को,
इश्क़ करना न सिखाओ, दीवानों को।
गुस्ताख़ दिल, जान कर बेअदब नहीं,
न कर सकता गुलामी, ये बेबस नहीं।
आसमाँ से न सौदा किया, उड़ान का,
तू तो है सौदागर सिर्फ़, अनजान सा।
मुझे बस उड़ना है, उन्मुक्त गगन में,
कोई भी आँसून बचे, भीगे नयन में।
इस आज़ाद जहान का, बाशिंदा हूँ,
बाहर से इंसान, अंदर से परिंदा हूँ।

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भूत में वर्तमान को ढूंढना भी,
भविष्य को बर्बाद करना है।

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माँ के होंठो पर कभी बदुआ नहीं होती,
बस एक मां जो कभी खफा नहीं होती।

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हाँ! मेरा गुरुर और स्वाभिमान हो तुम,
मेरी हर दुआ और अज़ान हो तुम।
लोग करते हैं बातें तो करने दो,
क्योंकि उससे ज्यादा उनकी औकात नहीं।।

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भूलने का अच्छा तरीका निकाले हो,
अब हर किसी से जो बात करते हो।

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जीवन उससे कहीं बड़ा है,
माँ की आशाएं जीवन से कहीं ज्यादा बड़ी है।

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“सत्य सदैव विजय रहा है"
फिर क्यों;
सच्ची मोहब्बतें अधूरी रह जाती हैं?

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तेरे बिना मर जाना चाहता हूँ,लेकिन
माँ की उम्मीदें मरने भी नही देती।

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