झूट....तुरंत यकीन हो जाता है ।
और सच..
साबित होते होते
टूट जाता है ।।-
एक छोटा सा तारा हूँ ।
अंधेरा घना है पर संग,
लिए दिव्य धारा हूँ ।।
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बारंबार प्रयास करो ।
कुछ अभ्यास करो-
कुछ खुदपर विस्वास करो।
होगा तुमसे ...
तुम..से- ही होगा-
विस्वास से करो।
बारंबार प्रयास करो ।।
अगर तुमसे न होता-
तो तुम्हे दिया ही न जाता ।
नियम, ये प्रकृति का
बड़ा निराला है ।
नियंता सिर्फ एक -
ऊपरवाला है ।
समझो तो-
उजाला ही उजाला है ।।
विवेक प्रभा ।-
कहाँ जा रहे हो ।
कहाँ भाग रहे हों ।
क्या जाग रहे हो ?
तो ..सोचो,
कहीं तुम अपनी ही प्रकृति से ,
दूर तो नही हो रहे हो ?
-
मेरे दोस्त- कद्र जरूर करो,
पर - फिक्र , खुद से ज्यादा नही ।
तुम्हारे ज्यादातर लोग -
तुमसे है....
तुम उनसे नही ।।-
बहते जाओगे
तो
कहाँ सम्भल पाओगे ।
समय के साथ
बढ़ते जाओ ।
खुद भी बढो-
औरों को बढ़ाओ ।।-
जितनी दूर तुम
इस मिट्टी से चले जाओगे ।
मानो य न मानो
खुद को अकेला ही पाओगे ।।
मेरे दोस्त ......
ये मिट्टी नही...
साक्षात माँ है--
जिसदिन, जब, जैसे ही सचमुच जाग जाओगे ।
खुद को , इस जगद्जननी के गोद मे ही पाओगे ।।-
एक गहन
अंधेरी रात- के बाद,
ही....
फूल खिलेते है ।
और अच्छे दोस्त भी-
इतनी जल्दी कहाँ....
बड़े इंतजार के बाद-
ही....
मिलेते है ।-
जी लूंगा मैं-
कोई मुश्किल नही-नही…..
बस-तुम दिख मत जाना-
दूर-दूर ..तक-कहीं...।।
बिबेक प्रभा-