इक हसीं सा रिश्ता दिल का आरज़ू से है तेरी,
आरज़ू मिटती नहीं धड़कन है थमती नहीं।
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तकता रहा हूं हुस्न को उसके तमाम उम्र
गो उम्र तो ढलती गई, निगाह-ओ-हौसला नहीं।
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कहने को जो पत्थर था आख़िर क्योंकर वो टूट गया,
अदा उस चोट देने वाले की ग़ालिबन मुख़्तलिफ़ होगी।
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दिल में रहकर मर जाना आसां सा लगता है,
दिल में ज़िन्दा रहने का हुनर हो तो बताओ।
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ख़्वाबों को टूटने की है आदत सी हो गई,
इक तुमसे जुड़ा वो ख़्वाब क्यों टूटता नहीं।
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आब-ओ-हवा के हौसले सब पस्त हो चले,
कुछ यूँ बने तेरे निशाँ इस दिल की रेत पे।
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क्यों दरिया में भटकती फिरती हो साहिल-ए-दिल मैं ही तो हूँ,
लहरें तो दामन छुड़ाती रहेंगी तुम्हारा कनारा मैं ही तो हूँ।
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किन क़दमों की आहट पे दिल बा-उम्मीद हो चला
नादाँ जानता भी नहीं वो आहट तो इक सराब है।
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कर सको तो कर लेना ऐतबार-ओ-एहसास,
मानिंद-ए-सबा हम हैं तुम्हारे तो पास ही।
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जो उस ख़ुदा से रखता हूं मैं वही तुझसे भी तो,
जानिब-ए-तवक़्क़ो से क्या फर्क़ है तुम दोनो में।
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