जरा दृश्य देखो, घटाएँ घिरीं हैं
कि बूंदें निराली, धरा पे झरीं हैं।
खिलीं पुष्प डाली, हरी भू हुईं है।
सुवासित फुहारें, मृदा को छुईं है।-
अब सुनें मेरी कविताएं मेरी ही आवाज़ में।
दामिनी चंचला, घनप्रिया क्षणप्रभा।
द्योति तेरी लुभाती, चले मनसभा।।
गर्जना जो करे, तार अन्तस हिले।
नृत्य रत उर हुआ, श्वास घन से मिले।-
घुमड़ घनन घन घोर धीरें है,
दामिनी द्युति मन भाई है।।
गरजत बरसत मेघ मेघना,
लवलशकर ले आई है।।
मृदु मयूर मद मोह में नाचे,
सौम्य समीर सुरभि छाई है।
सरस सृष्टि में सज गए छंद हैं,
काव्य अंकुर अन्तस अंगड़ाई है।।-
स्निग्ध घनागमन से,
रूक्ष रज वसुधा हुई सिक्त।
नवल निर्झर सम प्रवाहित,
मृत इच्छाएं हुईं चित्त।-
अश्रुओं से सींच ऊसर, इस वीथी से उस वीथी तक।
स्वेद के मृदु बीज बो कर, ताकता घन को है चातक।-
जली धरा पर धूल बिछी है,
विहग वीराना गान करें ।
सूखे निर्झर अश्रु बहाते,
वृक्ष मौन आह्वान करें।-
मन घड़ा अब, भर गया है
छलकने को भाव मचलें।
आवरण उर का शिथिल हो,
हिम सदृश संवेग पिघलें ॥-
मरने लगी है भाव करुणा,
मनु हृदय के कुंज से।
बढ़ने लगी है भूख नित ही,
आधुनिकता पुंज से।
इस क्रूरता की दौड़ में अब,
उर मनुज का खो गया है।
आखेट स्वयं का कर रहा,
मनु आज विकसित हो गया है।-
जल चुकी उन लकड़ियों की,
मैं राख नहीं हूँ।
श्वास लेती है जहाँ,
उस राख में अग्निशिराएँ,
उन शिराओं को जगाती,
मैं प्राण वहीं हूं।।-
देख नखत से सजी निशा को,
तनया मन हर्षाई।
मैया मुझको तारक ला दो,
कहे सुता तुतलाई।
मुक्तिज जड़ित नील चुनरिया,
माता दिहिन ओढ़ाई।
देख शीश पर तारक चुनर,
वो हल्के से मुस्काई।-