रास्ते बदल कर देखें हमने भी फिर भी मुझे कोई तरुणाई ना मिली ।
जिंदगी रही बिलकुल वैसी की वैसी हीं कुछ अलग सी जम्हाई ना मिली॥
चलता रहा कई रास्तों पर किसी भटकते मुसाफ़िर कि तरह यार मेरे ।
बहुत सिसका अपनी हीं किस्मत पे जिंदगी भर लेकिन अलग रुबाई ना मिली॥
हँसा जग मुझपे एक असफल इंसान समझकर बार - बार अब क्या करे हम ।
बहुत बदलना चाहा ख़ुद को पर इस असहनिय दर्द की कोई मुझे दवाई ना मिली॥
पागल बनकर जी रहा हूँ कि क्या खोया क्या पाया इस जिंदगी में अब तलक ।
मन को शांत करने की कोशिश बहुत की पर इसकी कोई रहनुमाई ना मिली॥
जीवन भटकने का नाम है इंसान पैदा होकर जीवन भर भटकता है किसी तलाश में ।
अब क्या अच्छा क्या बुरा हो उम्र निकल गई मानव की पर कोई नई अंगड़ाई ना मिली॥- ✍️ विश्वकर्मा जी
19 APR AT 10:13