विश्वजीत सिंह वत्स   (विश्वजीत)
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एक कवि और लेखक के साथ दार्शनिक साधक
Author:- आंगन मन
Joined 17 January 2025


एक कवि और लेखक के साथ दार्शनिक साधक
Author:- आंगन मन
Joined 17 January 2025

परिचय

मनुष्य जीवनभर ‘परिचय’ के पदरचनाओं के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है।
परिचय का अर्थ केवल मनुष्यों तक सिमटा है।
जीव-जंतु को क्या ही फर्क पड़ता है कि यह अमिताभ बच्चन है या कोई साधारण दुकानदार?
उनकी दृष्टि में तो यह बस दो पैरों पर चलने वाला एक प्राणी है — या जो भी नाम उनकी शब्दावली में हो, उनकी भाषा में।

परिचय की सीमा मनुष्यों से आरंभ होकर मनुष्यों में ही समाप्त हो जाती है — यह मूलांक दृष्टिकोण का अपरिहार्य सत्य है।
फिर भी, व्यवस्थाओं के संचालन में यह ‘परिचय’ शब्द बेहद महत्वपूर्ण जान पड़ता है।
क्योंकि यह मात्र एक नाम या शब्द नहीं, बल्कि समस्त मानव समुदाय के लिए एक व्यापक परिधि है — एक मानक, जो व्यक्ति और व्यवस्था को आपस में जोड़ता है।

युक्तप्रिया!
हम यह जानते हैं कि ‘परिचय’ केवल शारीरिक पहचान तक सीमित नहीं है,
बल्कि यह उस कारक और क्रियाशक्ति का प्रतीक है, जो व्यक्ति को सामाजिक ढाँचे में स्थान और अर्थ प्रदान करता है।

अतः,
हम यह जान जाते हैं कि ‘परिचय’ केवल एक शब्द नहीं — यह एक कारक है, जो व्यक्ति और समूचे मानव जगत को आपसी अर्थ और उद्देश्य में बाँधने का कार्य करता है।

विश्वजीत

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युद्ध है, पर पथ अनजानी,
सूत अधम, पर ध्यान ग्लानि।

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"मै, गिरधर और मत"

तुम सत्य को धारो हे गिरधर,
मै मतों का साधक बनू।
सत्य में तू इधर ही है न,
मै तुझे तुझे दर दर ढूंढू।
यह तुम भी जानते हो,
यह अच्छा नहीं है न।
मत तो आपके चरण पखारे,
पर देखो मेरे मन उजाड़े।
ओ गिरधर तुम मत से कहे को न बोलते,
बस तुम इधर उधर मन में ढोलते।
अब तुम जानो मन,
अब तुम जानो मत।
इसलिए मै कहूं ओ गिरधर-
तुम सत्य को धारो हे गिरधर,
मै मतों का साधक बनू।
इतना ही पर्याप्त

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महत्व पर इतर उतर,
यह मन है अधिनायक,
कम से कम उसे तो न बिखेर।

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सत् अष्ट कहाऊ,
काव्य पथ जग पाऊं,
सूत अधम लगाऊं।

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"धैर्य में है सार, और सूत में है विचार।
बनो रूप के पीछे भागने वाले नहीं,
बनो सूक्ष्म सूत्र को साधने वाले वीर।
– विश्वजीत"

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महत्व धीर,
सूत वीर।
रूप मन नीर,
कर अधम तीर।

**इसलिए—
महत्व धीर,
बनो 'सूत' के वीर।

✍️ - विश्वजीत

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"तुकबंदी और मन"

तुकबंदी ज़रा-सा,
मन है अभी भरा-सा।
रूप है अभी अधूरा-सा,
पथ है अभी खड़ा-सा।
सच है अभी खारा-सा,
मुक्ति है ज्वर-ताप नयन-सा।
लेकिन भाव है अभी पृथक-सा,
पर मन है तन से अधिक भरा-सा।
यह सच है नूतन-सा,
अवलोकन ज़रा हरा-सा।
अंत में वही खरा-सा,
तुकबंदी ज़रा-सा,
मन है अभी भरा-सा।

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"मेरे सूर्य की किरण मुझसे तब विभक्त हुई,
जब वो तन्हाई बिना दस्तक के दिल के करीब आई।"

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"सामान्य रूप से हम देखते हैं कि मानक हमेशा परोक्ष रूप से मनुष्य के चेतन मन पर सीधे असर डालने से पहले कुछ कारकों का सहारा लेते हैं।"

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