Vishal Singh   (Kaal chakra)
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Joined 27 May 2019


Joined 27 May 2019
19 JUN 2019 AT 18:31

सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।
यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते।।

अर्थात:- विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए क्योंकि वो फल और छाया दोनो से युक्त होता है। यदि दुर्भाग्य से फल नहीं हैं तो छाया को भला कौन रोक सकता है।

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8 JUN 2019 AT 14:52

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)

अर्थ: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं... इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो। कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।

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7 JUN 2019 AT 16:11

 वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।

अर्थात:- जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।


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7 JUN 2019 AT 13:50

श्री गुरुभ्यो नम:, हरि:ॐ, शम्भवे नम:
ॐनमोभगवते वासुदेवाय, नमस्ते अस्तु भगवान विश्वेश्वराय
महादेवाय त्र्यम्बकाय त्रिपुरान्ताकाय त्रिकालाग्निकालाय
कलाग्निरुद्राया नील्कंठाया मृत्युन्जायाया सर्वेश्वराय सदाशिवाय श्रीमन्महादेवाया नम:

अर्थात :

हे गुरु देव, हे हरिहर भोले, शिव शंभू नमोनमन, तीनो रूपों के रूप श्री वासुदेव भगवान् शिव जिनके तीन नेत्रों में तीनो लोकों का वास हैं जिसमे जल, अग्नी, वायु का समावेश हैं जिसने कंठ में विष को धारण कर निल्कंठेशवर का नाम पाया, जिन्हें मृत्यु पर विजय प्राप्त हैं जो सम्पूर्ण संसार के कर्ता धर्ता हैं ऐसे महादेव को प्रणाम .

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3 JUN 2019 AT 18:21

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय। नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय ॥

 भावार्थ :

जो शिव नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, तथा भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य–अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, अर्थात् वस्त्र आदि उपाधि से भी जो रहित हैं; ऐसे निरवच्छिन्न उस नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ। ।

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3 JUN 2019 AT 17:06

सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् । अहार्यत्वादनर्घत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा॥

 भावार्थ :

विद्वान् लोग कभी न चुराये जाने, अनमोल होने तथा कभी क्षय न होने के कारणों से सभी द्रव्यों, यानी सुख-संपदा-संतुष्टि के आधारों, में से विद्या को ही सर्वोत्तम होने की बात करते हैं ।

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3 JUN 2019 AT 11:39

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।

अर्थात:- उद्यम, यानि मेहनत से ही कार्य पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से नहीं। जैसे सोये हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता बल्कि शेर को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है।

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