अपने साये को अँधेरों में, दर-बदर भटकते देखा है,अरमानों को हालातों की सूली पे लटकते देखा है। विशाल सागर सी बहती थी जो, कभी ये ज़िन्दगी, उसे सिकुड़कर एक पोखर में सिमटते देखा है। विचरण करते थे जहाँ, असंख्य जीव स्वप्नों के, उस हरे-भरे जंगल को, रेगिस्तान में बदलते देखा है। जिसकी हँसी ने हर लिए सौ दर्द कितने दिलों के, उस खिलखिलाते बच्चे को, दर्द से बिलखते देखा है। जिसकी किरण से जाग उठती थी सोई हुई उम्मीद, हर शाम उस सुनहरे सूरज को भी ढलते देखा है। कभी जम सा जाता था जो मेरे अभिनंदन' के लिए,उस समय को भी आज बर्फ़ सा पिघलते देखा है। अरमानों को हालातों की सूली पे लटकते देखा है।
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