कभी शाम....तो कभी रात को ,आखिर
टूटते देखा है मैंने उसे ,
शाखों से गिरते... पत्ते हो जैसे ,
बिन हवा के बहाव के ।
एक ठंडी सुहानी हवा ,
जो उस शाम चल पड़ी थी ,
किसी टूटते पत्ते को सहारा देने ,
हाँ ...उसी पीले पत्ते को ,
जो हरा था कभी ।
एक छोटा सा ही सही ,
वो भी हिस्सा था... इस पुराने पेड़ जैसे समाज का ,
धूप ठंड और बरसात उसने भी ,
झेले थे कभी ।
आज जमीं के कितना पास आ गया ,
गिरते हुये,
एक ठंडी हवा का झोका .... जो चला था कुछ लम्हे पहले ही ,
उड़ा ले गया उसे दूर ,
उस छोटे बच्चे की किस्मत की हथेली मे ,
जो अंजान था...
इस पेड़ रूपी समाज
के गणित से,
जो बूढ़े का वजूद आंकता था.... न के बराबर ।
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