जिस मोड़ पर हम बिछड़े थे,
वहां याद की नदी फूटी थी।
जिसके किनारे नहीं थे।
पानी खारे थे,
जो मन को हल्का और
होठों को नमकीन करते रहे वर्षों।
बरस के मौसम अनायास बदल गये,
सावन और पतझड़ अब साथ आते।
हकीकत ख़्वाब की गोधूलि में विरह गाते।
कैलेंडर में फरवरी के कुछ सप्ताह,
बस अब कभी नहीं आते।
भावना के केंद्र की सभी त्रिज्यायें,
तुम्हारे प्रेम की परिधि पे आते।
और समय का वृत्त बनाते।
मैं मूक संज्ञा शून्य हूं,
और गणित का एकमात्र अपवाद।
तुम्हारी परिधि और मेरे व्यास का अनुपात,
पाई नियत नहीं शायद नियति है,
जो अपरिमेय है और अप्राप्य।
नदी में नये संबंधों के सेतु निर्माणाधीन है,
पर नदी में पानी नहीं है बस नमक बचा है।
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