बर्बाद तो यूं भी हम हो ही जाते मिश्रा
उनसे मिलना तो महज़ इत्तफ़ाक था-
लोग तो आते जाते रहेंगे ज़िंदगी में बहुत
मगर उसकी बात ही कुछ और थी 'मिश्रा'-
तमाशा-ए-दीद है ग़म है और शाम है मिश्रा
दिल में वो दिमाग वो और हाथ में जाम है मिश्रा-
मेरी ख़्वाहिश थी की तू मिले मुझे पर
हर ख़्वाहिश पूरी हो ये भी जरुरी नहीं-
एक दौर था जब मीठी चीज़ के पीछे भागते थे "मिश्रा"
ये एक दौर है अब कड़वी चीज़ भी मीठी लग रही है-
कल होती रही बरसात देर तक
जाने क्या हुई फ़िर बात देर तक
कहीं से फ़िर आ गई याद तुम्हारी
फ़िर तो ठहरी रही थी रात देर तक
सारे काम धाम भूल कर हम
लेकर बैठे रहे जज़्बात देर तक
जो एक लम्हा दे न सका अपना
करनी थी उनसे मुलाकात देर तक
लहरों ने साज़िश करके डुबोया हमें
देने वाले देते रहे खै़रात देर तक
-
ये रात गहरानी बाकी अभी है 'मिश्रा'
उसकी ज़ुल्फों में एक गांँठ और भी है-
अल्फ़ाज़ पिरोते - पिरोते हमने कई रातें काट दी "मिश्रा"
और उनकी खा़मोशी ने शहर भर की सुर्ख़ियांँ बटोर ली-
बेबसी हमने ऐसी भी देखी है 'मिश्रा'
गला सूखा था और आंँसू बहे जा रहे थे-
पहली मर्तबा जब तेरा दीदार हुआ था
वक़्त शाम का और दिल गिरफ़्तार हुआ था
-