"देर रात तक पढ़ रही थी, मत उठा उसे," कह कर के पापा मम्मी की डांट से बचा लिया करते अक्सर। फिर चाबी से पैरों में गुदगुदी कर रजाई खींच ले जाया करते। कहते, "बहुत समय हो गया। तेरी मम्मी सब कुछ अकेले कर रही। उठ जा, मदद करा दे उसकी।" मैं दो बार बोलने पर उठती। कमरे का सभी सामान समेटती, खाना ला कर मेज़ पर रखती और सो जाती। मम्मी के पैरों की आहट सुन झट से उठती। आधी रोटी मुंह में, आधी हाथ में दबाए हुए, एक मेज़ के नीचे कागज़, किताब पर। मैं प्लेट रखने जाने लगती कि मम्मी का एक और रोटी देने आना और कहना कि तेरी लिए बनाई है छोटी सी, खा लेना।
आज मेस का समय तय है, देरी से उठने पर खाना नहीं मिलता। पिछली रात का खाना मेज़ पर रखा हुआ, रख कर के भूल गई। दूध का कितनी बार पनीर बन गया। अखरोट कीड़े खा गए। आटे वाले बिस्किट का डब्बा आधा खत्म हुआ कि फिर खुला ही नहीं..
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