अकेला था भटका में राहों में दिल की,
मुहब्बत का मुझ पर, चढ़ा रंग ऐसा।
ये भूला सा, भटका सा, खोया सा दिल था,
दुशाला सा ओढ़े, हुआ बेढंग कैसा।।
थी रंगों की दुनिया, था भंवरों का मेला,
वो कश्ती फंसी थी, मैं डूबा अकेला।
कोई आसरा था, कोई था बवंडर,
किसी ने सम्हाला, किसी ने धकेला।
दिवास्वप्न सा स्वप्न, हुआ भंग ऐसा,
मुहब्बत का मुझ पर, चढ़ा रंग कैसा।।
न रिश्ते न नाते न घरबार की सुध,
जो खोलूं मैं आंखें, लगे बस वही धुन।
न दिन का पता, न ही कटती हैं रातें,
न लगता बुरा कुछ, न अच्छा लगे कुछ।
सफर बस सफर इश्क के संग जैसा,
मुहब्बत का मुझ पर, चढ़ा रंग ऐसा।।
भरी धूप तो ठंड, बरसात भारी,
है देखी जहन में, गजब बेकरारी।
घड़ी की ये टक-टक, घड़ियां प्रहर की,
सभी को लगे कम, मुझे ढेर सारी।
सही कहते हैं इश्क, है जंग जैसा
मुहब्बत का मुझ पर, चढ़ा रंग ऐसा।।
-