पढ़ कर अखबार की तरह
न रद्दी में फेंका जाए।
इंसान हूं मैं भी कम से कम
इंसान तो समझा जाए।
इक नजर मुड़कर देखती हूॅं हर आहट पर
अब के संगीत मिले शायद
महफ़िल-ए-बाज़ार में, हो कोई पारखी
तो फिर वो तार छेड़ा जाए।
धवल शिवांगी का, शांत
सौम्य रूप, कनक काया रहे
या रौद्र रक्तिम कालिका बने,
डमरू का निनाद पा जाए।
रहूॅं बन के घर की रौनक
किसकी न आरजू होगी।
क्या खता हुई थी न जाने,
खबर नहीं हूॅं न उकेरा जाए।-
एस्ट्रोलॉजी में भी दखल रखता हूँ।
बुरा न लगे आपको ऐसी शकल... read more
अगर तलाश हो मेरी, तो यादों को कुरेद लेना
पुरानी खुशबू हूं मैं, किताबों में खोज लेना.
Agyat_collection
PK
( पूर्णेश कुमार देवांगन)-
पुरानी किताब में जो इक गुलाब मिला।
जहन में यादों का शहर आबाद मिला।
वक्त थम सा गया रूह भी अतीत में उतर गई।
घूम आया पुरानी गलियां, यादें जो ठहर गई।
उम्र के हर पड़ाव का है अपना ही इक फसाना।
समेट लेना कुछ, पा लें कुछ, कुछ है भूलजाना।
रह जाता है कितना कुछ अनकहा अनसुना सा।
तुम होते तो..रहा स्वेटर में कुछ तुम्हारे छूना सा।
ऑंखों की सिपियों में, तुम मोतियों से ढल गए।
लड़खड़ाए थे सावन में हम भी फिर संभल गए।-
पुरानी किताब में जो इक गुलाब मिला।
जहन में यादों का शहर आबाद मिला।
वक्त थम सा गया रूह भी अतीत में उतर गई।
घूम आया पुरानी गलियां, यादें जो ठहर गई।
उम्र के हर पड़ाव का है अपना ही इक फसाना।
समेट लेना कुछ, पा लें कुछ, कुछ है भूलजाना।
रह जाता है कितना कुछ अनकहा अनसुना सा।
तुम होते तो..रहा स्वेटर में कुछ तुम्हारे छूना सा।
ऑंखों की सिपियों में, तुम मोतियों से ढल गए।
लड़खड़ाए थे सावन में हम भी फिर संभल गए।-
कि तेरा इंतज़ार है
खिजां में बहार है।
मैं विरां हुआ जाऊं
कहें वो हुआ प्यार है।
जिंदगी तेरे बैगर मेरी
जैसे कोई गुनाहगार है
जानता है तू मुझे,
जी रहा हूं कि ये एतबार है
धड़कता है ये दिल जोर से
कि कल फिर इतवार है।
ये तारीकी रातों की जाती क्यों नहीं,
कितनी लंबी ये शब ए इंतजार है...
-
क्षमता क्षमा करने की
खुद को भी औरों को भी
यही है रास्ता जो लंबे
पुराने दर्द से तारता है।
प्रायश्चित का विधान
है जो हमे उबारता है।-
मौलिकता और नवीनता पहचान है प्रसून की।
तप्तदग्धमनोहृदयों का लिबास तकदीर मून की।
आशुतोष ने शीश पर धरा चाॅंद द्वितीया का
जटा में गंगा, कंठ में कालकूट, अक्षयपात्र बून की।
अंतरभेदन की दृष्टि हो तो पत्थर में मूरत मिले।
गिरजा ने सब सिरजा बनी संगिनि संतोष सुकून की।
प्रसव पीड़ा तो है सहजसंभाव्य, मातृप्रेम में।
पंख रंग-बिरंगे तितली के है सौगात कोकून की।-
जब भी दिखे वो, होंठो
पर काश होता है।
बचपन तरसता है स्कूल को
वो जमाना खास होता है-
मोहब्बत का होगा असर धीरे धीरे।
बसेगा मन का शहर धीरे धीरे।
वस्ल ए यार की शब है आने को
कटेगा अब ये दोपहर धीरे धीरे।
किसी ने बड़े प्यार से निहारा था
उतरेगा उनका नज़र धीरे धीरे।
ऑंखो से चुरा के काजल, गाल
पे लगा दिया मुख्तसर धीरे धीरे।
ढलेगी अब ये रात ठहर ठहर कर
चलेगी जानिब ए सहर धीरे धीरे।-
संजीव सर आपको पदोन्नति की हार्दिक शुभकामनाएं।
कैलाशी अपने जीवन की सब लक्ष्य सहज ही पाएं।
गढ़ें नित सफलता के नए कीर्तिमान सक्सेनाजी।
उनकी सक्सेस-सेना,बढ़ें,कदम से कदम मिलाएं।
जीवनसाथी का संग साथ रहे, बच्चों, मित्रों, वक्त,
सहयोगियों, नसीब, नीतियों से भी मिले वफाएं।
जल जहाज हो या आसमान का उड़नखटोला
वक्त की दरिया में, वो सहजता से तैरें-तैराएं।
बंद मशीन में फूंकें प्राण, नित नई पहल नित नए निशान।
लक्ष्य सधे, मन बने महान, लक्षमण संजीवनी पाएं।
हर शै की है एक कहानी, मंजिल एक, राह हैरानी।
मैं हूॅं उसमें, वो मुझमें, इक बिजली से सब यंत्र चलाएं।-