मैं बैठा खाली, सोचूं बातें अपने दवा की,
एक हाथ में प्याला, दुजे में कलम खामोश थी।
बातें खुद की चली मुद्दतों के बाद,
साथ में एक मेरा यार, लुट ले गया गमों का बाजार।-
कोई ठहरता नहीं यूँ तो वक्त के आगे,
मगर वक्त की धुंध में छुप जाती हैं राहें।
अभी बस हालातों से खौफ खा रहा हूं,
अब नई सुबह और नई शाम चाहता हूं।-
बंद मुट्ठी है हाथ में कुछ भी नहीं है,
बात ये है कि बात कुछ भी नहीं।
कहने को तो बहुत है,
मगर कहना कुछ भी नहीं।
मुझ से जमाना है खफा,
मैं भी खुद से खुश नहीं।
बात ये है कि बात कुछ भी नहीं,
मैं अकेला हूँ, साथ कुछ भी नहीं।-
गुजर गया एक और दिन, रोज की तरह!
कुछ पाने की चाह, खोया रोज की तरह!
जवाब रखे रखे सवाल हो गये, रोज की तरह!
खुद से गुफ्तगू जो हुई, गुनेहगार पाया रोज की तरह!-
कुछ बातें खुद में ही सिमट कर रह जाती है।
कहना भी चाहो पर हिम्मत हार जाती है ।-
कहानी जिन्दगी की क्या सुनाएं इस महफिल को।
मैं अपने कदमों की लडख़ड़ाहट से परेशान हूं,
मगर जिन्दगी दुर जाने को कहती हैं।-
अल्फाज ही थम गए तुम्हारी झुकी नजरें देखकर,
क्या लिखूं अब इस मासूम चेहरे को देख कर।
यूं तो लूट लेते हैं लोग हजारों अदाओं से,
जिसकी सादगी में लूट जाए कुछ तो बात हो।
माना कि यह सादगी का दौर नहीं,
मगर सादगी से खूबसूरत कुछ और नहीं।
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जल गए सारे अरमान,
अब तो बस धुआं बाकी है।
और भी चाहते हो कुछ,
या इतना काफी है।-