Vineet Sharma   (विनीत "प्रेमासक्त")
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Joined 17 May 2017


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15 APR AT 21:28

निःस्वार्थ प्रेम
करूँ कैसे सोचता हूँ!
मोह में डूबा मैं,
हर बार सवाल पूछता हूँ,
जलता हूँ क्यों मैं?
डरता हूँ क्यों मैं?
टूटता हूँ क्यों मैं?
ऊँगली हर बार उठ जाती है,
मन को संकुचित कर जाती है,
करूँ क्या वो भी समझ न आता है,
निःस्वार्थ प्रेम करूँ कैसे!
स्वार्थी मन मेरा समझना चाहता है....

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5 APR AT 18:20

मोहब्बत से कहकर तो देखो मोहब्बत की बातें,
तुम कहो तो हम चाँद भी ज़मीन पे ला दें,
लगेगी दकियानूसी बात ये तुमको,
सब्जबाग क्यों दिखाते हो, ऐसा कहोगे मुझको,

समझाऊँ कैसे बताओ! मेरे दिल के जज़्बात तुमको,
अहसास जो हैं छलक रहे देख न पा रहे तुम उनको,
सोते-जागते रहते हो ख़यालों में बस तुम ही तो,
अदाओं ने तेरी बांध दिया है मेरे दिल को, मेरी अक्ल को|

तुम कहो तो हम चाँद भी ज़मीन पे ला दें,
मोहब्बत से कहकर तो देखो मोहब्बत की बातें...

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4 APR AT 13:54

एक खिड़की से मैं,
जाने क्या-क्या निहारता हूँ...

वो रातें जो तेरी बाँहों में बीती,
वो सुबह जो तेरे साथ जगी,
वो हरकतें मेरी जिसपर तू हँसी,
वो ज़िन्दगी मेरी संग जो तेरे कटी,
हर पल को फिर से मैं रोज़ जीता हूँ,
तू नहीं तो तेरी यादों को घूँट-घूँट पीता हूँ|

एक खिड़की से मैं,
जाने क्या-क्या निहारता हूँ...

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3 APR AT 20:47

हम हँसते, मुस्कुराते अपनी बातें कर जाते थे,
तुम और मैं कहाँ यूँ रोज़-रोज़ बिफ़र जाते थे,
दोष मगर न तेरा न मेरा है, ये इश्क़-विश्क़ की घातें हैं,
टूटता ही है दिल इश्क़ में, ये रोज़-रोज़ की बातें हैं...

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31 MAR AT 19:01

कुछ अच्छी कुछ बुरी आदतों का पिटारा हूँ मैं,
कभी पारिवारिक, कभी आवारा हूँ मैं,
कभी आदतन बस यूँही मुस्कुराता हूँ मैं,
कभी मुस्कुराते-मुस्कुराते खीज जाता हूँ मैं,

ज्ञानी बड़ा बनता हूँ, ज्ञान बिन बात बरसाता हूँ मैं,
कितनी बार यूँही बेकार बक-बक करता जाता हूँ मैं,
आदत ही तो है जो मुझसे कविताएं भी लिखवाती है,
कई बार मगर मेरी ये आदत मुझसे ही रूठ जाती है,

आदतन जाने कितनी ओर हरकतें करता हूँ मैं,
बस करता हूँ, हुआ क्या-कैसे समझता नहीं हूँ मैं,
आदत से मजबूर हूँ मगर जिम्मेदारी मेरी ही है,
आदतें हैं जो बनी मेरी सारी जिम्मेवारी मेरी ही है ...

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19 MAR AT 19:31

इतना गहरा क्यों उतर रहा है!
रुक जा, ठहर जा, न जा,
आगे गया तो लौट न पाएगा,
खुद को खुद में ढूंढ लेगा,
फिर कहाँ संसार समझ आएगा,
आईने में देखेगा जब खुद को,
खुद ही पर ऊँगली उठाएगा,
बात मान और पलट जा,
वरना सब छूट जाएगा...

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8 MAR AT 11:57

हसरत-ए-दीदार

मिलने को तुमसे हम हर लम्हा यूँ बेक़रार बैठे हैं,
रात कट न रही हम सुबह के इंतज़ार में बैठे हैं,
वो सुर्ख़ लब और उस पर वो तबस्सुम तुम्हारा,
उफ़! उस लब को छूने को हम मिलन के इंतज़ार में बैठे हैं,
वो मख़मली आरिज़ और उस पर चहलकदमी करती लटें,
हाय! उनको सहलाने को हम महीनों से इंतज़ार में बैठे हैं,
शगुफ़्ता गुलाब सा हुस्न और उस पर वो क़ातिलाना अदाएं,
इल्म मुझे खुद भी नहीं, कब से हम हसरत-ए-दीदार में बैठे हैं|

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6 MAR AT 22:20

ख़ुद से कैसी दुरी है,
हाए! ये कैसी मजबूरी है,
मैं चाहूँ अगर भी कि ख़ुद से मिल आऊँ,
बुद्धि भ्रस्ट मेरी कहती ये ग़ैर-ज़रूरी है,
विवेक मेरा जाने कहाँ गुप्त हो चूका है,
कामनाओं की गिरफ्त में आ लुप्त हो चूका है,
मन जाने कहाँ-कहाँ दौड़ रहा, क्या-क्या चाहता है!
मोह-माया की दुनिया में ख़ुद संग मुझे भी फंसाता है,
दूर बहुत दूर आ चूका अब लौट आना जरुरी है,
मगर ख़ुद से ख़ुद की ये दुरी बन चुकी मजबूरी है...

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5 MAR AT 19:36

यादों की दोपहर में,
एक प्याली गर्म चाय के संग,
बीते मेरे कुछ लम्हें,
मेरी ही कहानी के संग....


पूरी कविता पढ़िए caption में..

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4 MAR AT 21:40

ये शहर ऐसा है

ये शहर ऐसा है, कुछ मेरे ही जैसा है,
आओ बताता हूँ ये आखिर कैसे मेरे सा है!
कभी तन्हा-अकेला सा लगता है,
कभी लगा हो मेला सा लगता है,
कभी हँसता-मुस्कुराता रात जागता है,
कभी रोता-बिलखता दिन काटता है,
कभी बेमतलब, बिन मौसम बरसात हो जाती है,
कभी एक बूँद के लिए मेरी आँखों सी तरस जाती है,
कभी भागती-दौड़ती ख़ुशी या गम सब भूल जाती है,
कभी चुप-चाप शांत मन सी खुद को ही समझाती है,
अब कितना और कैसे बताऊँ, कि ये शहर कैसा है,
ये शहर ऐसा है, कुछ नहीं बिलकुल मेरे जैसा है ...

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