उसके लब से निकल गई होगी।
इस तरह बात चल गई होगी।
उसने ज़ुल्फ़ें बिखेर लीं अपनी,
अब वहां शाम ढल गई होगी।
(Full Ghazal in Caption)-
जलते ज़ख्मों पे आब हैं हम तो..!!
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नफ़रतों के इस भयानक दौर में,
इश्क़ का इक रंग फीका चाहिए...
देवता बनना बहुत आसान है,
आदमी बनने सलीक़ा चाहिए...-
तिरे सवाल में मिरा जवाब शामिल है,
मिरे हिसाब में तू बेहिसाब शामिल है।
इसे मैं बार-बार पढ़ता गुनगुनाता हूँ,
तिरे बदन में नज़्म की किताब शामिल है।
(Read Full Ghazal in Caption)-
ये जश्न-ओ-रोशनी ये तामझाम किसका है।
ज़रा पता तो चले इंतज़ाम किसका है।
हमें भी ख्वाब दफ़्न करने हैं ज़रा पूछो,
जमीं तो बिक चुकी है आसमान किसका है।
(Full Ghazal in Caption)-
मैं फायदा हूँ याकि नुकसान हूँ कि क्या?
हर वक़्त मर रहा हूँ ईमान हूँ कि क्या?
सूखे से इस सफर में बहता ही रहा हूँ,
मैं अपने गांव की नदी धसान हूँ कि क्या?
बोता हूँ खुशी और उपजती है खुदकुशी,
क्या मैं भी मुल्क का कोई किसान हूँ कि क्या?
कुछ लोग मेरे अंदर मरके जले भी हैं,
मुझको पता नहीं मैं श्मशान हूँ कि क्या?
मैं जिस्म जी रहा हूँ और रूह ढो रहा,
ये सोचता हूँ मैं भी इंसान हूँ कि क्या?-
ग़ज़ल का एक शेर-
तुम्हें इंसान दिख रहा मुझमें?
तह में जाओ शराब हैं हम तो...
(Read Full Ghazal in Caption)-
रोज-रोज इक नया तमाशा क्यों झेलें?
इश्क़-हिज़्र का तोला-माशा क्यों झेलें?
या तो मेरी हो जाओ या खो जाओ,
गाहे-गाहे आस-निराशा क्यों झेलें?
इश्क़ खेल में तय है हार, मुनासिब भी,
फिर इस खेल में चौसर-पासा क्यों झेलें?
इंतज़ार में दूर तलक रस्ता देखें,
आंखें मेरी घना कुहासा क्यों झेलें?
जहां लोग सूखी रोटी खाकर खुश हैं,
हम उस दौर में शाही खासा क्यों झेलें?
दरमियान इन लाशों की बदबू के हम,
फूलों की खुशरंग सुवासा क्यों झेलें?
मुसोलिनी, हिटलर का वक़्त जवां है तो,
गांधी, लिंकन, लूथर, पाशा क्यों झेलें?-
लोगों को ये लगा कि संभलने लगे हैं हम,
हम जानते हैं और फिसलने लगे हैं हम।
हमको मनाने वाले जबसे हुए ख़फ़ा,
गाहे-बगाहे खूब मचलने लगे हैं हम।
रिश्तों के खेल हमको परेशान कर गए,
बच्चों के खेल देख बहलने लगे हैं हम।
जो हमको जलाया तो नहीं रोशनी हुई,
पर मोम की मानिंद पिघलने लगे हैं हम।
क़तरा की तिश्नगी है, सावन की है तलाश,
अब जेठ दुपहरी में टहलने लगे हैं हम।
जो इंक़लाब बनके हक़ मांग रहा है,
वो खून हमारा है उबलने लगे हैं हम।-
कुछ तो मेरी अच्छाई है, कुछ तो मिरी खराबी है।
ये सराब जो देख रहा तू, ये सराब दुनियावी है।
अभी मुहब्बत शुरू हुई है, धीरे आगे बढ़ने दो,
मेरी जान! तबाह होने की इतनी क्या बेताबी है?
गुजर चुकी उस शबे-वस्ल का, बस इतना सा किस्सा है,
उसका ज़िस्म गुलाबी है और उसकी रूह किताबी है।
मेरी ग़ज़लें, नज़्में, किस्से, सब यूँ तो बेमतलब हैं
तेरे होठों तक जो आयें, हर अल्फ़ाज़ खिताबी है।
घना अंधेरा झुठलाने की, भी हिम्मत दिखलाई है,
माना कि जुगनू है पर ये जुगनू भी अफताबी है।
जिसको हिज़्र कहा है वो तो मेरे दिल पे ताला है,
जिसको ग़ज़ल कहा है वो तो मेरे दिल की चाबी है।
इस लड़के में कोई शराफ़त तुम भी ढूंढ रहे हो क्या?
छोड़ो, ये शैतान शहर का सबसे बड़ा शराबी है।-
अपनी-अपनी शान में रहना पड़ता है।
हमको तो ईमान में रहना पड़ता है।
तलवारों को किसी बात का डर तो है,
अक्सर किसी मियान में रहना पड़ता है।
ढेर शिकारी को करना आसान नहीं,
छुपकर उसी मचान में रहना पड़ता है।
आंखें मेरी दर्द बहाती रहती हैं,
होठों को मुस्कान में रहना पड़ता है।
काश! हमें भी रहने को इक घर होता,
हमको अभी मकान में रहना पड़ता है।-