30 JAN 2019 AT 19:51

शोला हूँ भड़कने की गुज़ारिश नहीं करता,
सच मुँह से निकल जाता है, कोशिश नहीं करता।

गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन,
चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश नहीं करता।

माथे के पसीने की महक आये ना जिससे,
वो खून मेरे जिस्म मैं गर्दिश नहीं करता।

हमदर्दी-ए-एहबाब से डरता हूँ 'मुज़फ्फर'
मैं ज़ख्म तो रखता हूँ, नुमाइश नहीं करता।

लहरों से लड़ा करता हूँ दरिया में उतर के,
साहिल पे खड़े हो के मैं साज़िश नहीं करता।

हर हाल में ख़ुश रहने का फ़न आता है मुझको,
मरने कि दुआ, जीने की ख़्वाहिश नहीं करता।

- ©'विनय'