यू-तो "ग़म-ऐ-उल्फ़त"
सी-दुनिया में,
"जख़्म-ऐ-हज़ार"
छिपाते हैं।
हैं,"सब-ठीक" कहकर
"फ़िर-मुस्कुराते" हैं।
"जाने-क्यों" इक "नकाबी-चेहरा"
यहाँ "हर-शक्स" दिखाते हैं।-
यू तो "जिस्में-ऐ-मोहब्बत" में,
"साथ" लोग-कुछ ऐसे "निभाते" है।
"ख़्वाहिशे-ऐ-दिनी" के लिए,
"इक-नकाबी" चेहरा कई महीनों "दिखाते" हैं।-
यू-तो "हैं-जो" भ्रम "तुम्हारे-लिए",
वो-ही "मेरा-यकीन" क्यों हैं?
हैं "जो-ग़लत", तो गलत-है,
पर "फिर-वो" इतना "हसीन" क्यों हैं?-
यूँ-तो हैं बड़ी "मुश्किल",
"विश्वास-ऐ-यकीन"
अब हर ''किसी-पर",
फिर "नज्म-ऐ-सुकून"
ये कैसा-हैं,
जब "हैं-दिल" में,
"मंजर-ऐ-तन्हायाँ"
तो "फिर-ये" बाहर ये-हुजूम "कैसा-है"-
यू-तो हैं,
"ज़ख्मे-ऐ-दिल" कितना...
और
"दिले-ई-दर्द" हैं, कितना..
बस "बता-नही" सकता,
ग़र "सको-समझ" तो "इन-आँखों" से
"तो-समझो"
गिरे-हैं "आँसू-ऐ-जज्बात"
कितना,
बस "गिना-नही" सकता!-
यू-तो "कहने-को",
कि-सी "भीड़-ऐ-अपनों"
सी हैं, ये "दुनिया"
"फिर-क्यों",
"आगजे-इश्क़-ऐ-रुसवाई"
के-बाद
"तन्हा-सा" रह जाते हैं, ये-इंसान....-
"आंजामें-इश्क़" में
यू तो, मिलती हैं "हर किसी-को"
"शोहरत" या "रुसवाई"
लेकिन
"जिस्मे-ऐ-इश्क़",
हैं-आजे-इश्क़ की "सच्चाई"-
"हैं-दूर" मुझसे, यू तो "पास-भी"
हैं "तेरी-मौजूदगी"
कमी का "एहसास-भी",
यू-तो होंगे लाखों "इस-दुनिया" में
पर हम-सा "महफ़िले-ई-शाम",
क्या हैं, "किसी-के" पास भी...?-
थी,
जैसे जलानी,
वैसे,
जला-दी हमने
"ये-ज़िंदगी"
"राखो" पर "ये-ऐतराज़" कैसा
उठे "इन-धुओ" पर "बहस-कैसी....??"-
यू -तो, हूँ-मैं ईक "शामे-ए-चिराग",
अंधेरों मे-भी यू "मुस्कुराउंगा"
रख "संभाल" यू-मुझे..........
"वक़्त-हूँ", जनाब
"वक़्त" पर हमेशा "काम" आऊँगा।-