सवाल ये नहीं था कि जवाब क्या मिलेगा,
सवाल बस इतना था… कि कौन साथ चलेगा।-
वो हर सुबह की किरण में झलकता है,
हर रात की तन्हाई में धड़कता है।
मैं सोचता था मिट जाएगा वक़्त के साथ,
पर वक़्त ने ही बताया —
वो अब और भी है...-
तुमसे कोई शिकायत नहीं है…
मगर तेरे बिना जो बातें खुद से करता हूँ,
वो कभी कभी चीख़ बनकर दीवारों से टकराती हैं —
और लौटती नहीं...-
हर रोज़ मैं मुस्कुरा देता हूँ,
मगर आँखें नम रहती हैं,
हर बात पे चुप सा रहता हूँ,
लेकिन साँसें थम-सी रहती हैं।
मैं टूटा नहीं, बस थक गया हूँ…
क्या फ़र्क पड़ता है।-
हाँ, मैं पागल हूँ...
पर खुश हूँ इस पागलपन में,
क्योंकि इसमें तू है —
तेरी यादें हैं, तेरी बातें हैं... और बस, तू है।-
"सवाल था ही कहां…"
ये ज़िंदगी तो बस रोज़ आईना दिखाती रही,
और हम —
हर जवाब में अपना ही चेहरा पहचानते रहे,
बदलते हुए, टूटते हुए,
पर फिर भी कुछ कहने की हिम्मत लिए।-
बस यूं ही
हर रोज़ तुमसे मिलना चाहता हूं...
ना कोई वजह चाहिए, ना कोई बहाना,
बस यूं ही —
तुम्हारी आँखों में कुछ पल ठहर जाना चाहता हूं।
बस यूं ही
जब भी दिन ढलता है, दिल मचलता है,
कभी बातों में, कभी ख़ामोशियों में,
कभी भीड़ में, तो कभी तन्हाइयों में।
हर रोज़ तुमसे मिलना चाहता हूं,
बस यूं ही
चाहा तो कुछ ज़्यादा नहीं,
सिर्फ़ एक मुस्कान, एक नज़र,
या बस… तेरा होना।
बस यूं हीं,
हर रोज़ तुमसे मिलना चाहता हूं
जैसे सुबह को सूरज से मिलना होता है,
हर रोज़,
बस यूं ही-