Vikas Thakur   (Vikas Thakur)
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दुनिया से डरता नहीं,
पर हिजाब में रहने दो।
किताब हूं हजूर किताब ही रहने दो।
Joined 17 June 2018


दुनिया से डरता नहीं,
पर हिजाब में रहने दो।
किताब हूं हजूर किताब ही रहने दो।
Joined 17 June 2018
12 MAR 2023 AT 15:50

तेरी आहट दरवाज़ें भी पहचान जाते थे।
दिल पर फुलों के निशान बन जाते थे।

हर वो शक्श जो तुझे पाया खुश रहा,
गैरों के लिए तुम बड़े आसान बन जाते थे।

इम्तिहान के इतिहास के सवालों की तरह,
समझ आता नहीं था बस परेशान बन जाते थे।

शहर में एक फूल मेरे नाम का भी है,
और हम तेरे नाम जैसे बन जाते थे।

बागों में देख लिया तुझे किसी ने अलसुबह,
शहर में फूलों के नए दुकान बन जाते थे।

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9 MAR 2023 AT 23:50

सारे हमारे दुश्मनों ने नज़र मार रखा हुआ है।
दोस्त, ऐसे दोस्तों को तुने घर रखा हुआ है।
वैसे तो तुम्हें बड़ी फ़िक्र रहती थी कभी,
तुझे पता है निशाने पर मेरा सर रखा हुआ है।

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5 MAR 2023 AT 0:58

फलसफे जिंदगी के नहीं काम के।
दिन नहीं है अभी मेरे आराम के।

ठोकर जब लगी और आह निकली,
और सर लगाते रहे मेरे इल्ज़ाम के।

भूखे बच्चे तो गर्म पानी पीते हैं जब,
ख़ुदाई से पेट भरता नहीं आवाम के।

कितना पढ़ा है और इस क़दर ये,
पुस्तक कोई पढ़ता नहीं मेरे कलाम के।

बागे उजड़ चुकी शहर खण्डर में तब्दील है,
महक रही है बारुदें खेतों में बादाम के।

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1 MAR 2023 AT 23:40

उस गली में जाना कभी दोबारा न हुआ।
इतना चाहने पर भी वो हमारा न हुआ।

गम-ए-ताल्लुख तब होती थी अब नहीं,
पर उन रास्तों से अब तक किनारा न हुआ।

सब कुछ परख लिया है शायद दुनिया में,
कोई नशा , कोई बोतल सहारा न हुआ।

सालों से रंगे भी अपनी किस्मत को तरसती है,
सालों से कोई रंग उन गालों को प्यारा न हुआ।

शाम गुज़र जाते है उनकी यादों से 'विकास'
और हमारा सिर्फ इतने से गुज़ारा न हुआ।

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13 DEC 2022 AT 0:11

वो बाहर आता नहीं है अपने सायबान से।
और मेरा फूल पुछता नहीं है बाग़बान से।

इतना तो किसी और को पढ़ा नहीं हमने,
कैसे भूल जाता मैं तुम्हें अपने ध्यान से।

ऐ खुदा अब तो अर्श पर से उठा ले हमें,
या उठाना ही है सिर्फ श्मशान से।

लगता था शायरी का भी शौक है उनको,
हमने तो शुरुआत कि थी इसी अनुमान से।

दलील सुन कर भी वो आराम न मिला,
ज़ख्म धुंधले पड़ रहे है अब इसी निशान से।

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6 DEC 2022 AT 19:38

हमने भी दिल लगाया इसी दिल्लगी के साथ,
और चलों लगता है बंदा ठीक है सभी के साथ।

और सिर्फ इतना ही देखकर उसका हां आया था,
मकान,तन्खवाह सब ठीक है,तमीज़ के साथ।

सुना था लड़कियां जवां हो तो शादी को तरसती है,
बुलाया शादी में पुराने आशिक को किसी के साथ।

यादें कहती है ज़रा घुम आ फिर इस मौसम मैं,
शहनाई आज कौंध रही है तेरी शादी के साथ।

शहर के आशिकों को बेरोजगारी साथ मारती है,
एक और किस्सा खत्म हुआ इसी कहानी के साथ।

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24 NOV 2022 AT 0:36

तेरे साथ बैठते थे तब नवंबर के दिन।
फिर याद करते है अब नवंबर के दिन।

वो ठिठुरते हुए हाथ मिलाते थे तब,
गुनगुनी धूप वाले नवंबर के दिन।

मेरा बसंत भी तब अलग आता था,
पीले पत्तों वाले जब नवंबर के दिन।

एक यही यादों का महीना है हमारा,
है अब भी दिलकश ये नवंबर के दिन।

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16 OCT 2022 AT 0:34

भोर अंधेरे कोहरे ओस का पान अक्टूबर में।
गुलाबी नारंगी आसमान सी शाम अक्टूबर में।

मैं अब भी बैठता हूं जंगल की नदी किनारे ,
धूप बुलाती है हर सुबह-शाम अक्टूबर में।

ये तो मौसम है करने का इजहार अब की बार,
देखते है क्या होता है अब अंजाम अक्टूबर में।

मेरे भी अहाते में खिल उठा है हारसिंगार पौधा,
और शजर भी झडा रहा है गुलफाम अक्टूबर में।

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8 OCT 2022 AT 23:29

हमसे तो नहीं माना इतना मनाने के बाद।
चांद और रौशन हुआ है तेरे जाने के बाद।
गुलाबी ठंड सी महकी थी खुशबू उनकी,
दरिया भी पास आया था भींगाने के बाद।

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12 SEP 2022 AT 23:24

मुझमें भींगा हुआ दोस्त कुछ भी नहीं अब ।
यादों की सीलन के सिवा कुछ भी नहीं अब।

कोई तर्क़-ए-ताल्लुक़ हमारी भी सुने कभी,
इस दिल में दलिल के सिवा कुछ भी नहीं अब।

उम्र बढ़ रही है हर एक दिन, कुछ तो मिले,
शहर में बेरोज़गारी के सिवा कुछ भी नहीं अब।

रूक-रूक कर बात करने की आदत है हमें,
तुम्हें सुनने के सिवा और कुछ भी नहीं अब।

हमने भी ज़रा सा पलट कर जवाब दिया था,
नज़र अंदाज़ करने के सिवा कुछ भी नहीं अब।

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