Vikas   (© विकास)
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Joined 26 September 2019


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30 JUL 2023 AT 21:12

मिलूंगा एक रोज़ तुझसे,

उस रोज़ तक शायद
चेहरे पर तेरे झुर्रियां पड़ चुकी होंगी ।
दाढ़ी पर मेरी भी सफेदी चढ़ चुकी होगी ।।

मैं बदल चुका होऊंगा,
तू भी बदल चुकी होगी ।
दरमियां हमारे जो बिन बदला होगा,
वो हमारी मोहब्बत होगी ।।

मेरे इश्क़ की उस रोज़ ज़मानत होगी ।
जब तू लाल बिंदिया में आएगी और कयामत होगी ।।

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30 JUL 2023 AT 15:30

ज़िंदगी ढूंढ ही लेगी मुझे
कहीं न कहीं
कभी न कभी
किसी मोड़ पर ।

गर जो ना हुआ ऐसा
तो मैं खुद निकलूंगा
ज़िंदगी की तलाश में,
खुद को पाने की आस में ।
सब कुछ छोड़ कर
खुद को सुकून की तरफ मोड़ कर ।।

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30 JUL 2023 AT 8:45

सवालों के साथ भागो, जबाबों की तलाश में ।

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28 JUL 2023 AT 12:11

कभी कभी
वक्त बेरहमी में कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता,
तो कभी
वही वक्त वो रहम करता है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।।

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26 JUL 2023 AT 11:23

आसान नहीं है मोहब्बत...
संजीदगी में संजोए रिश्तों को, हमने बिखरते सरेआम देखा है ।
मोहब्बत के सफ़र में अक्सर "मोहब्बत" का कत्लेआम होते देखा है

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24 JUL 2023 AT 21:36

किसी की एक नसीहत याद आती है ।
जब भी कभी इश्क़ की बात आती है ।।
इश्क खुदा है गर जो दिल "खुद" ही से मिला है ।
वरना दिल का टूटना तो एक आम सिलसिला है ।।

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22 JUN 2023 AT 8:23

सम्हाल रखा है दिल को मैने,
दिलकशी से दूर बहुत दूर कैदखाने में ।
डरता हूं
गर जो आज़ाद किया इसे
तो तोड़ देंगे लोग,
तोड़ने का रिवाज़ जो है इस ज़माने में ।।

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31 MAY 2022 AT 16:18

मुट्ठी भर ख़्वाब लेकर उड़ा था मैं, परिंदों के शहर से।

सोचा इन्हें नई उड़ान दूंगा, नाम दूंगा ।
पालूंगा पोसूंगा, नया मुक़ाम दूंगा ।।

अब जो यहां आया हूं, तो ! अलग ही मंज़र हैं ।
मुस्कराहटों के पीछे छुपाते हैं गम लोग, दिल बेजान है, बंजर हैं ।।

मिला था कल मैं, एक मुर्दे से, जो सांसें ले रहा था ।
खुद को बार बार, इंसान कह रहा था ।।

एक ही जगह पर खड़ा दौड़ रहा था, भाग रहा था ।
नींदों को निचोड़ कर पी चुका था, आंखों से जाग रहा था ।।

मैने पूछा, इतनी जहोजहद क्यों ?
क्यों परेशान हो ? किसकी तलाश है ? ।
बोला,
मैं जो मुट्ठी भर ख़्वाब लाया था साथ अपने, वो खो गए हैं,
बस, उन्हें वापस पाने की आस है ।।

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29 MAY 2022 AT 10:51

First, work it to "make out"
Later, make it to "work out"

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14 MAR 2022 AT 17:49

इन खामोश वादियों में लहरा के लब्ज़ों को अपने, दर्द आज़ाद करने आया हूं ।
बेदम से शिथिल पड़े "सुकून" के कानों में, आज कुछ तो आवाज़ करने आया हूं ।।

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