कविता:- "सब लूट रहे श्मशान को"
कवि- विकास भास्कर
धरती लूटी अम्बर भी लूटा
अब मत लूटो भगवान को
चार कंधों पर लेकर अर्थी
सब लूट रहे, श्मशान को
ऐसी चली, कि अज्ञान की आँधी
हर हाथ ज़ुल्म को, निकल पड़ा
लाज़ न आयी, हिय लोचन को
हाय ! हाय ! ज़माना बदल पड़ा
हर इंसां बैठा बिलख रहा
क्यों काट रहे, चट्टान को
लेकर झोली गली-गली में
सब लूट रहे, विद्वान को
धरती लूटी अम्बर भी लूटा
अब मत लूटो भगवान को
चार कंधों पर लेकर अर्थी
क्यों लूट रहे, श्मशान को.......।।
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