हे प्रकृति! तेरी माया,
जीव-जंतु, अन्न-जल-स्वांस अद्धभुत पाया।
यहीं जगत, यहीं ब्रह्माण्ड..
मानव जिसमें अलग ही आया।
कहीं द्वेष, अंहकार, लोभ लेकर छाया
कहीं स्नेह, विनम्र, संतोषी सज्जन कि काया।
कौन देव? कौन धर्म-जाती?
इसी ने ही भांति-भांति ईश्वर बनाया।
सब है भंगूर क्षण के वासी।
सूरज, चाँद, तारे, नभ..
बस सारा जगत इसी में समाया।
वंदन करूँ, वंदन करू..
मैं इस ब्रह्मांड शून्य को करू।
चित मेरा भी ब्रह्मांड संग करूँ।।
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