अब ना कोई खंजर... और ना कोई तीर चाहिए
जीने की ख्वाइश को, ना कोई तदबीर चाहिए
बुझा-बुझा सा रहने लगा है.. ये दिल न जाने क्यूं मेरा
अच्छी ख़बर सुनने ख़ातिर, क़ासिद नहीं बशीर चाहिए
आज के मजनूओं को देखो.. लैला की चाहत ही नहीं
दिल रश्कीन हो गया है.. इनको रांझे की हीर चाहिए
दिया जो हाथ मदद को.. उसने फेर लिया मुँह अपना
डूबते हुए को यारों अब, तिनका नहीं शहतीर चाहिए
हुश्न के दीवाने सभी.. यहाँ आवारा-ए-आलम मगर
बन सके परवाना जो, क़ाबिल-ए-फ़ना नज़ीर चाहिए
जिक्र तेरे हिज्र का कभी... सरे-आम करता नहीं
उजली यादों में बस तेरी, धुंधली सी तस्वीर चहिए
तेरी उल्फ़त में "माशारत्ती".. सरे-राह लूटा गया है
मुस्तक़बिल बन जाए तू , बस ऐसी तक़दीर चाहिए
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