शाम की छांव में दोपहर भी रखना जुबान पे अमृत आँखों में ज़हर भी रखना ये अज़ीज़ दोस्तों की प्रजाति दुश्मन ख़तरनाक बनती हैं अपने ख़ासमख़ासों पे इक नज़र भी रखना
वक़्त को अपने किस्सों में मैंने उलझाए रक्खा है दिल को दिलासा दे कर के झूठी आश में रक्खा है अब सब अँधियारा ही है बस ताक सजा के रक्खा है
तुम लौट यहाँ फिर आओ न इक चाँद चुरा के रक्खा है
तेरे नाम की ये रेखाएँ भी धुंँधली हैं मिट न जाएं कहीं इक अरसे से मैंने दायीं मुट्ठी को बाँधे रक्खा है अब रूठ गया सब छूट गया बस भ्रम को पाले रक्खा है किस्मत को धोखा दे दे कर हिस्से में तुमको रक्खा है