“उर्दू”
‘बे’ ‘अलिफ़’ ‘ते’ से मिलकर ‘बात’ बनती है/
यूँ लहज़ा-लहज़ा उर्दू हज़रात से मिलती है !!
बहोत लम्हे, तमाम पल गुज़ारो तुम मुहब्बत में/
तब कहीं जा कर रिश्तों की सौगात बनती है !!
हमको भी चले जाना है, वो गुज़र गए जैसे/
उजाले अच्छे हैं मगर इनको भी रात लगती है !!
वो हिन्दू है, मुसलमा हूँ मै मगर/
आदमी होने को कब कोई जात लगती है !!
हाँ दरीचों से झाँकने का शऊर नही मुझको/
आफताब हूँ, रोशन होने को इक कायनात लगती है !!
@nand.-
3 JUN 2018 AT 13:32