Vijay Kumar Prajapat Vkp   (विजय कुमार प्रजापत 'विजय')
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Writer, Shayar, Poet, Storyteller, Script Writer
Joined 13 May 2018


Writer, Shayar, Poet, Storyteller, Script Writer
Joined 13 May 2018
26 JAN 2022 AT 0:18

वो जाती है कहाँ आती कहाँ से।
में कितनी बार दिन में याद आया।
बताती है मुझे दिनभर की बातें।
मगर मिलने नहीं आती है मुझसे।

छिपाती भी है कुछ कुछ बात मुझसे।
तबियत, दर्द, रोना उन में शामिल।
करे क्या प्यार जो करती है मुझसे।
मगर मिलने नहीं आती है मुझसे।

बहुत खलता है उसको दूर रहना।
वो चाहती है मेरी बाहों में बहना।
मेरी परवाह भी काफी है उसको।
मगर मिलने नहीं आती है मुझसे।

विरह की पीर बढ़ती जा रही है।
बिखरने लग गए सब सब्र के पुल।
बिखरती दिख रही है पर, मगर, क्यों।
वो मिलने क्यों नहीं आती है मुझसे।

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14 JUL 2021 AT 23:56

काफिला ए ज़िन्दगी में साथ दे पाए नहीं।
काम से आए थे वो कुछ काम तो आए नहीं।

हर समय नोचा हमें नाखून से अग्यार ने।
आप हिम्मत देखिए हम फिर भी मुरझाए नहीं।

बेबसी माथे पे मेरे थी लिखी शुरुआत से।
दिल को पढ़ते थे शिकन को पर वो पढ़ पाए नहीं।

इस वबा में इश्क करने का नया रस्ता चुना।
हम ने लोगों को मिलाया हाथ मिलवाए नहीं।

काम में उलझे रहे या फिर के अपनों में रहे।
याद तो करते रहे पर उस से मिल पाए नहीं।

तारीफों के पुल हमारे भी लिए बाँधे गए।
तुम गिनाती हो ज्यों आशिक़ हम ने गिनवाए नहीं।

की कड़ी मेहनत तभी सीखा तभी लिखते है हम।
हम तुम्हारी तरह कुछ भी लिख के इतराए नहीं।

टी वी पर तारक का चश्मा खा गया बचपन 'विजय'।
आदमी लॉयल भी होता है ये बतलाए नही।

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2 JUN 2021 AT 11:36

(Read Full Poem In Caption)

कभी सोचा है दोज़ख देखती है वो जो सहती है।
घिनौना कृत्य जो तूने किया फ़ल वो ही सहती है।
उसे ही गालियाँ देते है अपने कोसते भी है।
भले ज़िंदा बची हो वो भले जिंदा जलाई हो।

अगर वो जल गई है तो भी उसकी रूह रोती है।
अगर ज़िंदा है तो सहमी सी वो रहती ना सोती है।
अगर ज़िंदा है तो उसको ना कोई प्यार करता है।
ना मिलती है कभी उसकी किसी की आँख से आँखें।

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27 MAY 2021 AT 21:37

तुम्हारे बिन है सूना आजकल अच्छा नहीं लगता।
हवाओं तक का छूना आजकल अच्छा नहीं लगता।

बरसती सूजती आँखें है अब बारिश की रातों में।
किसी के साथ होना आजकल अच्छा नहीं लगता।

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27 MAY 2021 AT 14:42

आपकी, मेरी, हमारी है, दराज़ों में रखे।
एक लिफ़ाफ़े में, कई पल है, गुलाबों में रखे।

चूमकर, लब को तेरे, चाहता हूँ, कर दूँ तरबतर।
ना कभी, ऐसा हो सूखे, वो नकाबों में रखे।

आज़माइए, ज़माने को, भले चाहे मगर।
आप, कम से कम, मुझे अपनी, निगाहों में रखे।

पा न पाओ, कुछ तो पहुँचों, पास जितना, हो सके।
हौसला इतना, 'विजय' अपने, इरादों में रखे।

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26 MAY 2021 AT 17:08

हमारे आपके ये बीच जितनी आपदाएँ हैं।
रचयता है ना कोई और ये हम आप लाएँ हैं।

लड़ा तूफान से वो पर बुझा घर की हवाओं से।
ज़माने ने कई ऐसे दिए थे जो बुझाएँ हैं।

ज़हन में बात अटकी है के में कुछ भी नहीं करता।
मगर ये जान लो बरसात आएगी, खिजाएँ हैं।

में सरपट दौड़ता रहता था जिनपर थे मेरे सपने।
में उन राहों पे लंगड़ाया जहाँ मेरी वफ़ाएँ हैं।

अकेले जो चले जंगल में वो भटके दिशाएँ हैं।
समूहों ने ही जीती जंग है आयाम पाएँ हैं।

अगर पूरी मुहब्बत हो 'विजय' अपनी तो मतलब है।
अधूरी तो बहुत सारी कथाएँ थी कथाएँ हैं।

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2 APR 2021 AT 13:50

कोशिशें लगती बहुत है साथ पाने के लिए।
कौन जीता है यहाँ पर भूल जाने के लिए।

दो अलग बागान की फसलों का चाहत बाँधना।
आँख में कंकड़ के जैसा है ज़माने के लिए।

सोचता हूँ छोड़ दे वो मुझ को मेरे हाल पर।
आ ही जाती है वो फिर भी हक़ जताने के लिए।

वो न आया तब तलक थी साँस आया रुक गयी।
ज़िन्दगी ठहरी रही एक शब बिताने के लिए।

ज्यों बड़े होते गए हम खुद खिलौना बन गए।
आजकल रोते बहुत हैं मुस्कुराने के लिए।

आँख से उसकी टपकते नीर मय में डाल दो।
कुछ तो बंदोबस्त कर दो ग़म भुलाने के लिए।

मुझ को तुमसे पूछना है क्यों चुना तुमने विरह।
काफी सारे रास्ते हैं आज़माने के लिए।

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6 FEB 2021 AT 23:58

गुलामी का कभी देखा कोई सपना नहीं था।
मैं वो क्यों बन गया हूँ जो मुझे बनना नहीं था।

वो मेरे रास्ते में अड़चनों सा हो गया है।
मुझे उसके बनाए रास्ते चलना नहीं था।

बनाए यार मैने खुदसे अपने ही करम से।
यहाँ पर दूर तक मेरा कोई अपना नहीं था।

अज़ब ये इश्क का दरिया है जिसको पार करते।
बहा वो शख्स भी जिसको यहाँ बहना नहीं था।

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30 NOV 2020 AT 19:55

मैं रूठूँ तो मनाता ही नहीं है।
कोई भी काम आता ही नहीं है।

निभाता हूँ मैं अपने फ़र्ज़ सारे।
कोई रिश्ते निभाता ही नहीं है।

धधकती दिल में बातें सैंकड़ों है।
कोई सुनकर बुझाता ही नहीं है।

मेरी तन्हाई से ऐसी ठनी है।
मुझे अब डर सताता ही नहीं है।

कहा उसने था गुस्से में गलत पर।
कभी भूले भुलाता ही नहीं है।

वो मेरा हाल पूछे तो ये कहना।
'विजय' अब डगमगाता ही नहीं है।

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22 OCT 2020 AT 2:00

मैं रूठूँ तो मनाता ही नहीं है।
कोई भी काम आता ही नहीं है।
निभाता हूँ मैं अपने फ़र्ज़ सारे।
कोई रिश्ते निभाता ही नहीं है।

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