मेरे अंदर उसकी ऐसी लगन हुई।
धीरे धीरे मुझ में, नुमद-ए-सुख़न हुई।।
मिलती थी मुस्कुरा के, हर बशर से वो,
ये देख मेरे अंदर, कुछ तो चुभन हुई।
कमसिन कली सी थी वो, नज़ाकत भरी हुई,
अब धीरे धीरे क़ातिल, शो'ला बदन हुई।
फिर दिल पे मेरे उसने , ऐसी ज़र्ब दी,
दिल का क़तल हुआ, मोहब्बत दफ़न हुई।
इतना कुछ हुआ भी, लेकिन न कुछ हुआ,
क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-अख़्तर, दार-ओ-रसन हुई।-
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जिनकी आमद से घर कर जाती हैं ख़ुशियाँ,
वो प्यार की मूरत बने घर आती हैं बेटियाँ।
आक़ा का फ़रमान है, पक्का उसका मक़ाम है,
अपने साथ जन्नत की बशारत लाती हैं प्यारियाँ।
घर में सरगम से मधुर, बजने लगते हैं जो सुर,
मीठी इनकी बोलियाँ, छन छनाती हैं चूड़ियाँ।
बेटे गर हों चराग़ तो बेटियाँ भि कुछ कम नहीं
लिए आँखों में वक़ार वो सजाती हैं पगड़ियाँ।
घर-आँगन को छोड़ कर जब चली वो जाती हैं,
जैसे चमन को छोड़ कर चली जाती हैं तितलियाँ।
ज़ाहरी नज़ाकत भी है, बातिनी ताक़त भी है,
ग़ैज़ पे जो आगईं, मिटा के रखती हैं हस्तियाँ।-
आओ मेरी नज़र से मेरा वतन देखो।
सूरज और शुआओं की फबन देखो।।
ये वतन है हम बंजारों का, दमकते चाँद सितारों का,
तरानों की बहारों का, सुख़न के शादमानों का,
गुलों का और गुलज़ारों का, जन्नत के हसीं नज़ारों का
गांधी का और ग़फ़ूर का, अज़ीम ऐसे कई किरदारों का।
आओ मेरी नज़र से मेरा वतन देखो।
सूरज और शुआओं की फबन देखो।।
यहां सुबह बुलबुल का चहचहाना, यहां रात जुगनुओं का टिमटिमाना,
यहाँ नाचते मोर का थरथराना, यहाँ महकी हवाओं का लहलहाना,
यहाँ फूलों पे भंवरों का सरसराना, यहाँ तोते से मैना का फुसफुसाना,
यहाँ जंगल में कोयल का गुनगुनाना, यहाँ के नज़ारों से दिलों का जगमगाना।
आओ मेरी नज़र से मेरा वतन देखो।
सूरज और शुआओं की फबन देखो।।
ग़रीब भी हैं, अमीर भी हैं, ख़ुदा के अज़ीज़ फ़कीर भी हैं,
हिंदू भी हैं मुस्लिम भी हैं, सिख ईसाई, बुध जैन भी हैं
कार भी हैं, बेकार भी हैं, इक दूजे के ग़म-ख़वार भी हैं
लड़ते और झगड़ते भी हैं, गले लग के सब कुछ बिसरते भी हैं।।
आओ मेरी नज़र से मेरा वतन देखो।
सूरज और शुआओं की फबन देखो।।-
आशिक़ों के अन-गिनत फ़साने निकले,
हमारी आरज़ू के भी जनाज़े निकले।
दर्द में मज़ा तो तब आने लगा,
औरों के घर जब वो सजाने निकले।-
Ramazan Mubarak🌙😊💐
Ab din honge roohani,
Raateiñ bhi hongi noorani...
Khushamdeed Mah-e-Ramazan,
Teri aamad se hogi Shaadmaani..
اب دن ہونگے روحانی،
راتیں بھی ہونگی نورانی۔۔۔
خوش آمدید ماہِ رمضان،
تیری آمد سے ہوگی شادمانی۔۔-
Nafratoñ ke bazar meiñ
khushiyoñ ka thela lagaya tha..
Khasara kar khushiyoñ ka,
ghamoñ ko yuñ sajaya tha..
Lagayi aag duniya ne,
jashn aise manaya tha..
Payi unhoñ ne wo khushiyañ
jo jholi bhar k laya tha..-
Garmi ki iss tapish meiñ tu aur garmi na badha..
Faasla rakh zara, kahiñ ho na jauñ lad-khada..
Maana ke lambi thi judayi, ishq bhi hai sar chadha..
Dhal ne tho de iss shàms ko, rahoonga bahoñ meiñ pada.-
Chehre pe muskurahat aur dil meiñ bair rakhte haiñ..
Karke hum se badmàashi, wafa ki ummeed rakhte haiñ..
Kee hum se dil lagi waqt guzari ke liye..
Koyi tho batlaye unheñ, hum bhi waqar rakhte haiñ.-
Lafzoñ ke jaal bunna hameiñ nahi aata..
Alfazon ke moti pirona hameiñ nahi aata..
Mubarak ho tumheiñ sheereeñ mizaj wale..
Meethi churi ban gala katna hameiñ nahi aata...-
Musavvir ki koyi tasveer jaisi ho,
Mehki hawaoñ ki khushbu jaisi ho..
Chura na le koyi iss gulshan se tumheiñ,
Muskurate hue bilkul phool jaisi ho...-