उजाड़कर घर परिंदों का,
खुद का आशियां सजाते हैं।
कई मुद्दतो से बनकर भी,
हर बार बिखर जाते हैं।।
खैर अब तो सांसे भी बिक रहीं,
हम भी खरीद लाते हैं।
रश्म है यहां तो,
हम पर्यावरण दिवस मनाते हैं।।
चीरकर शजरो का सीना,
नये शहर बनाते हैं।
पहले तो दवा ही बनाते थे,
अब मर्ज भी हम ही बनाते हैं।।
हवा ,पानी , मिट्टी,
हक सब पर जताते हैं।
अरे कोई मज़ाक थोड़ी है!
हम प्रकृति के सर्वज्ञानी जीव कहलाते हैं।।
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