वही नगमे पुराने और वही इक शाम बासी
उन्हें आना न था पर हम वहीं बैठे रहे।
उन्हें आना न था पर वक्त पर आए पहर सब,
घड़ी कहती रही सच अनसुना करते रहे हम,
ख़्यालों में कहीं यक-दम से आया खुशनुमा कुछ
कलाई से मलीं आँखें, लबों पर जश्न आया,
अजब था जश्न भी- खारे निशाँ थे आस्तीं पर।
कोई आया नहीं सारे निशाँ कहते रहे पर
ख्यालों ने कहा इक और आने दें सवेरा,
सवेरा भी हुआ पर ज़िद में हम ऐंठे रहे।
पहर बदले- वही नगमे पुराने, शाम बासी,
उन्हें आना न था पर हम वहीं बैठे रहे।
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