पहले-पहल उस तस्वीर को खूब गहराई से माप लिया था मैंने, फिर कुछ सरल शब्दों के माध्यम से उसे अपनी लिखावट में उतार लिया था मैंने, संजीदे अल्फाज़ कहें या चंद लफ्जों की मेहरबानी- समझदार होते हुए भी खुद को ज़रा-सा नादान मान लिया था मैंने।
कुछ बनने के लिए घर से थोड़ा दूर निकलना पड़ता है, फिर बहुत से अपनों से भी खुद को सीमित करना पड़ता है, हालातों को देखकर स्वयं अपनों का सहारा बनना पड़ता है, अक्सर कुछ पाने की चाह में बहुत कुछ खोना पड़ता है।
शुरुआत से ही मुझमें सब्र-ए-समीम की हिस्सेदारी रही, जहां बड़ी उम्मीदें वहां बदलते वक्त की साझेदारी रही। फिर खुद को ये भी समझा लिया मैंने- कि जिसकी जितनी समझ थी उसकी उतनी समझदारी रही।