इत्तिला करा दे उन हवाओं का मुझसे
निकलकर जो आईं तेरी रुह से मुझ तक।।
तस्सवुर करुंगी मैं हर उस सहर का
जो श़ब से निकलकर छायी है अबतक ।।
हिज्र लगे एक मरासिम के जैसा
रश्क हो क़मर का आसमां से जब तक।।
कि दिल ए नाशाद भी कुछ कम हो जाए
और ले चले हमें इस ओर से रब तक ।।
जब रफ़्तार तेरे लफ्जों की यूं सुकूनत कर गयी
मुझ तक आने का रास्ता तेरा सहल करती हूं।
त-अस्सुर अब भी है तेरे अश्क का दिल पर
जानां तुझ पर ही पहला वो ग़जल करती हूं।।
~Vandita 🍁
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