एक खामोश सुकून की चाहत में कई तूफानों से गुजर रहे हैं हम...
छोड़ सारी महफ़िल का साथ अब तन्हाईयों में बसर रहे हैं हम...
थी चाहत कुछ अपनों की हमें भी इस जहाँन में!. पर देखो ना...
उन अपनों की चाहत में ही आज तिनकों सा बिख़र रहे हैं हम...-
कभी गैरों, तो कभी अपनों का ही शिकार हुई जाती हूँ मैं
आज भी खुद के ही बेगुनाही का सबूत ढूंढने जाती हूँ मैं
था! यकीनन यकीं खुद पे ख़ाता ना हुई कभी होशगी में,
तो फिर! किस ख़ता का इल्जाम ख़ुद के सिर पाती हूँ मैं
थी मुहब्बत, कभी जिन अपनों की मेरे... ग़ुरूर का कारण,
क्यूँ उन अपनों की उठी उंगली पे टूटके बिखर जाती हूँ मैं
हैं कुछ सवाल जिनकी उलझन मेरे अश्क़ों ने ना सुलझाई,
आज भी उन सवालों के कटघरे में खुद को खड़े पाती हूँ मैं
मेरी इन ख़ामोशीयों का सबब मेरा गलत होना हो अगर,
तो चलो ठीक है फिर अभी से ही गुनहगार कहलाती हूँ मैं-
यूँही बेवजह....
निहारा नही करते
तेरी तस्वीरों को वक्त बेवक़्त ऐ दिल....
कुछ इक मूरत!
मुझे भी चाहिए...
मेरे इश्क़ के मंदिर में इबादत के लिए,,।।-
किसी रूठे हुए को मना के आज
किसी रोते हुए को हँसाते हैं
किसी आँख से आँशू छीन आज
उसके होंठों पे हसी सजाते हैं
चलो आज दीवाली कुछ ऐसी मानते हैं..
किसी को अपना बनाके आज
किसी के अपने बन जाते हैं
जो भटक रहा उम्मीद लिए
उसका भी दामन भर जाते हैं
क्यूँ ना आज दीवाली कुछ ऐसी मानते हैं...
बिजली की लड़िया तोड़ आज
घर माटी के दिये से सजाते हैं
काली अधियारी अमावस राती
दिया-बाती संग पूनम बनाते हैं
आओ फिर आज दीवाली कुछ ऐसी मानते हैं...-
सुनो ,,,
आते आते
कुछ इक कतरा
सुकूँ के संग ले आना
आप अपने ,,,
क्योंकि आप से दूर.......
इस ज़िन्दगी की
साझेदारी ने हमारी
बेचैनियाँ ,,,
बढ़ा रख्खी हैं.......
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बहोत जला ली हमने चिताएँ...
हर साल उस सतयुग में हुए रावण की
है ग़र हिम्मत!...
तो जला के देख इक चिता तू भी आज
खुद में बसे खुदके रावण की...
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चलो... माँ हम लौट चलते हैं.... आज फिर बीते उन खूबसूरत पलों में
जब तुम्हारे माथे के
गोल टीके में मुझे
सूरज नज़र आता था ...
जब तुम्हारे आंखों का
काजल मुझे हर बुरी
नज़र से बचाता था ...
जब तुम्हारे पीठ का
सहारा मुझे सुकून
भरी नींद सुलाता था ...
और जब तुम्हारी
इक मुस्कान से मेरा
हर दर्द भाग जाता था ...
तो चलो ना माँ.. हम लौट चलते हैं... उन्हीं खूबसूरत पलों में।-
क्या खूब रंजिशें निकली तूने भी
हमे पास बुला कर " ऐ मंजिल " !
की देख तेरा पता पूछते पूछते
हम खुद के ही शहर से लापता हो गए!-
कैसे ? एक फटी हुई सी चादर! से किसी ने अपना घर बनाया है
कैसे ? उस घर की सुराखों से उसने खुद को तूफानों में बचाया है
कहने को तो चल पड़ा है ये अपना देश! प्रगति की राहों में अब
पर देखो ना! आज फ़िर...
इस फुटपथ की ज़िन्दगी ने देश की हक़ीकत को दिखाया है ।।-
शायद! हममें इन लफ़्जों कोे सजों कर रखने में अब वो बात ना रही...
क्यूँकि! वो पढ़ते तो सब हैं बस हमारे ही अल्फ़ाज़ छोड़ कर...
या फिर शायद दिल के एहसासों को बयाँ करने के अब हम काबिल ना रहे...
क्यूँकि! वो समझते तो सब हैं बस हमारे ही जज़्बात छोड़ कर...
या फिर अब कोई खनक ही ना रही उनके और मेरे बीच बसी खामोशियों में ...
क्यूँकि! वो सुनते तो सब हैं बस हमारे रूह की आवाज छोड़ कर....-