उमर भर की उलाहना सुनकर,
मेरा शीशा तो न टूटा कभी
दिल तेरे ही टुकड़े मेरी जिंदगी को चुभन क्यों देते है?
मैं कैसे न जलने दू अपने ख्वाब और खुशियां
मेरे ठिठुरते ज़मीर को यही तो अगन देते हैं
मुझे नहीं देखने किसी के असली चेहरे अब
आओ खरीद के दो चार नकाब पहन लेते हैं
मन यूं हल्का हो गया की अब यूं न सहना होगा
कातिल का भी मन रखने चलो झूठा ही सहम लेते है
दुआ में मुझको मांग के ,भीख में जान भी मांगो तो दे देंगे
हम जैसे, अपने सिवा सब पर रहम लेते है
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