Vaibhav Mishra   (वैभव मिश्रा)
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शब्द कीमती हैं इन्हें व्यर्थ प्रयोग न करें।
Joined 30 April 2020


शब्द कीमती हैं इन्हें व्यर्थ प्रयोग न करें।
Joined 30 April 2020
8 MAY 2022 AT 1:21

- "माँ की प्रभुता" -
ईश्वर ने रचा सृष्टि को,
किंतु क्षमता न इतनी पाई।
आने को धरती पर प्रभु को भी,
ज़रूरत 'माँ' की पड़ी दिखाई।।
कहा गया जग में यह भी कि,
प्रभु को हर क्षण हर स्थान,
उपस्थित होने में है कठिनाई ।
जटिल समस्या, समाधान को,
विधाता ने है 'माँ' बनाई।
जननी स्वरूप में जन को,
परमेश्वर, पड़ें दिखाई।
माँ ! ममता का सागर है,
न माप सके कोई गहराई।।
होती यदि जननी न,
क्या सृष्टि सृजन कर पाती ?
कैसे कोई संतान धरा पर,
जन्म मात्र ले पाती।
खोकर अपना अस्तित्व वो,
ममता का धर्म निभाती है !
इसीलिए इस जग में सदा,
माता महान कहलाती है।
स्थान सर्वोच्च पाकर "माँ",
प्रभु से पहले पूजी जाती है।
करे "माँ" की महिमा का वर्णन,
क्षमता कलम ने, न इतनी पाई।
माता की प्रभुता के आगे,
फीकी पड़ जाये प्रभुताई ।।
- वैभव मिश्रा

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12 APR 2022 AT 22:35

समर्पण मेरा कहता तुमसे,
की प्रेम में मेरे खोट नहीं।
हृदय में बसाया है तुमको,
करता मैं हृदय पर चोट नहीं।
ये शब्द मेरे, करें बात तेरी,
इनका अर्थ सिर्फ तुमसे ही ।
विरह, वियोग सब कुछ मैं सहूँ,
करूँ प्रेम सदा बस तुमसे ही।
इसके बदले क्यों कुछ तुमसे चाहूं ?
ये है प्रेम मेरा, कोई व्यापार नहीं।
है प्रेम वही , जो बंधन खोले,
जो बाध्य करे, वो प्रेम नहीं।
जब थाम लिया पीड़ा ने हृदय को,
अब कविता का जन्म तो होना ही।
- वैभव मिश्रा

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11 APR 2022 AT 22:48

मेरे शब्द केवल जो तुमने पढ़े !
वो भाव नहीं जो पीछे इनके खड़े !
जाग जाग कर रातों में ,
शिद्दत से थे ये ख्वाब गढ़े !
अब खाली हृदय,
निर्जीव सा बेसुध,
इंतजार में तेरे सांस गिने !
अब न ये ख़्वाब गढ़े।
अब न ये ख़्वाब गढ़े।।

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28 MAR 2022 AT 22:47

बस चुप से रह जाते हो !
मैं दिन भर करूँ इंतज़ार शाम का,और
तुम हो कि अल्फाज खर्चने में शर्माते हो !
न कुछ कहते, न बताते हो...
न बोलने के सौ बहाने गिनाते हो...
मैं कुछ भी कहूँ , तुम सिर्फ सुनते जाते हो..
अल्फाज कुछ रटे रटाये दोहराते हो..
अजी वजह का जिक्र करो न..
क्यों बोलने में इतना शर्माते हो...
अपने लफ्जों पर यूं काबू कर
दूसरों को तड़पाते हो...
बहुत सताते हो...
बस चुप से रह जाते हो !!
- वैभव मिश्रा

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31 JAN 2022 AT 1:10

दूरी इतनी रहे कि, खूबियाँ दिखती रहें!
नजदीकी इतनी न हो कि,
खामियाँ नजर आने लगें।
- वैभव मिश्रा— % &

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18 JAN 2022 AT 0:56

सुनता रहूं मैं तुमको ही,
बस तुम यूँ ही कहते जाओ !
गुमसुम न रहो, यूं चुप न रहो,
हो तकलीफ कोई बस मुझे बताओ।
ये समां अधूरा , ये जीवन कोरा,
रंगों से अपने इसे सजाओ।
रुको न सफर में, यूं बीच डगर में,
साथ मेरे बस चलते जाओ।
ये बात मेरी एक मान भी लो,
जज़्बात मेरे तुम जान भी लो,
फिर तुम मर्जी अपनी फरमाओ।
तमन्ना मेरी बस इतनी सी,
कि मैं तो सारा तेरा हूँ !
इंतजार में तेरे ठहरा हूँ !
तुम भी मुझको यूँ अपनाओ,
बस ! तुम थोड़े मेरे हो जाओ।
- वैभव मिश्रा

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15 AUG 2021 AT 23:42

कि कीमत बड़ी चुकाई है !
आजादी ! ऐसे ही नहीं पाई है।
वीरों के बलिदानों पर धर,
पग ये स्वतन्त्रता आयी है।
मत कहो चलाने से चरखा ,
आजादी हमने पाई है।
कितनी ही माताओं ने ममता
देशहित बलि चढ़ाई है,
सुहागनों ने सिंदूर दिया,
बिंदी भारत माँ को लगाई है
न पीठ पर वीरों ने घाव सहे,
सीने पर गोली खाई है,
लहू से धरती रंग दी लाल,
फिर आजादी आयी है।
मत कहो चलाने से चरखा,
आजादी हमने पाई है।
- वैभव मिश्रा

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20 JUL 2021 AT 23:24

साथ होना और पास होना,
दोनों में फर्क है!
कुछ लोग साथ हैं, पर पास नहीं,
और कुछ पास होकर भी साथ नहीं।

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28 MAY 2021 AT 2:47

आज छत पर एक शरारत देखी,
चांद और हवा की मोह्हबत देखी।
चाँद खुशी से लाल था,
हवा इतरा कर चल रही थी!
चांदनी चांद की हवा में घुल रही थी!
नखरे हवा के, उसकी नजाकत देखी।
आज छत पर ...
चांद तड़पा रहा, जला रहा था हवा को,
छेड़कर बादलों में छिप जा रहा था वो,
हवा मोह्हबत करती है,
बादलों को साफ करती है,
उसके दीदार को कोशिश लगातार करती है !
मसखरी चांद की दिललगी हवा की देखी !
आज छत पर... वैभव मिश्रा

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28 MAY 2021 AT 1:29

मैंने तुम्हे दिल में रखा,
तुम थोड़ा दिल ही रख लेते मेरा !

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