Upendra Sharma   (U.N. Sharma)
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Joined 25 February 2019


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Joined 25 February 2019
15 MAR AT 17:03

यूँ तो हर शख्स ईमानदार नज़र आता है।
उन्हें मेरा ही मुजस्सम क्यों दागदार नज़र आता है।

इश्क़ बेचारा बर्बाद क्या हुआ महंगाई में,
अब तो हर कोई खरीददार नज़र आता है।

आलम ऐसा कि लुटे थे आशिक़ कई, दंगों में,
अब तो बेवफ़ा भी बेदार नज़र आता है।

ख़ंजर का निशाँ ही नहीं मालूम पड़ता,
और तुम कहते हो हथियार तो धारदार नज़र आता है!

वफ़ा क्या समझोंगे तुम हमारी,
तुम्हें तो हर चोर पहरेदार नज़र आता है।

इस कदर भी क्या किसी का एहसान जाताना 'शर्मा',
कि अब हर चेहरा राज़दार नज़र आता है।

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28 FEB AT 13:48

धड़कन पड़ी है मंद पर साँसों में रवानी है,
ये जले होंठ उनके आंसुओं की निशानी है।

जमें ख़याल, तपिश रूहानी है,
अब क्या समझाया जाये! ये मसला खानदानी है।

बदक़िस्मत है, करतूत नापाक नहीं।
ये तो बस लकीरें है जो पेशानी है।

रूहों का मेल ख़ुदा कराता है।
ये बात ही बेमानी है।

उसने समझा सार जीवन का जिसने ये बात जानी है,
कि ख़ाक में ख़ाक लिखना आसाँ पर मुश्किल पानी पर लिखना पानी है।

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25 FEB AT 11:25

मैं तुझसे दूर पर तू मेरे क़रीब।
दुआ है रब से रहे ऐसा मेरा नसीब,
मेरे होने ना होने से तुझे फ़र्क़ ना पड़े,
मेरी सुबह हो तेरे ख़यालों से,
और ढले दिन तेरी यादों के क़रीब।

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24 FEB AT 9:22

मोहब्बत की हमें कुछ ऐसी सज़ा मिली,
जीवन के तरानों की धुन बन क़ज़ा मिली।

इत्र अपने लहू का छिड़का मज़ार पर,
फिर भी बदरंग फ़ज़ा मिली।

मौत की ख़्वाहिश लिए बैठे थे चौराहे,
ज़िन्दगी ना जाने क्यों हमसे आ बेवजह मिली!

उन्हें हुक़्म था फूलों भरे बिछोने का,
काँटों की सेज सजा मिली।

फूल बनकर खिलने की चाह में अमलताश से बन मौत बरसते हैं,
कुछ ऐसी शक्ल में ख़ुदा की रज़ा मिली।

मुस्कुराहटों के आईने में,
मासूमियत अज़ा मिली।

कितने ख़ुशक़िस्मत होते है वो शख्स जिन्हें अपनी मौत चुनने का मौका मिलता है।
हमनें इश्क़ चुना, पर जीने की सज़ा मिली।

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23 FEB AT 9:25

कितने ख़ुशक़िस्मत होते है वो शख्स
जिन्हें अपनी मौत चुनने का मौका मिलता है।
हमनें इश्क़ चुना था!
पर जीने की सज़ा मिली।

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21 FEB AT 17:24

उम्रभर की शिकायतें तेरी बाँहों में आकर तबाह हो जाती है।
अक़ीदत इश्क़ की तुमसे बेपनाह हो जाती है।

इस मोह माया के जाल में भटका कई दफ़ा रास्ता मैं,
ये तौफ़ीक़ ही फिर रहनुमा हो जाती है।

पिछली बारिश में जला था मकाँ मेरा,
तभी से बस तेरी पलकों तले बसर हो जाती है।

ये नम हवाएं राज़दाँ है मेरी मुश्किलातों की,
मुझे बाग़ी पाकर ये भी रवाँ हो जाती है।

फलों का भार नहीं सहा जा रहा शाखों से अब,
ज़रा बिखरी तो हरी हो जाती है।

वो गुनाहों का क़ुबूलनामा मांगेंगे तो क्या करोगे 'शर्मा'!
वो तो फ़ौरी ललाई दिखाकर बरी हो जाती है।

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25 JAN AT 9:34

तुम तो नज़र मिला जाती हो,
और हम पूरे दिन पागल हुए फिरते है।

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24 JAN AT 21:17

सूख चुकी है स्याही कलम की,
दफ़न हुआ है शायर कहीं।
मर गयी है शायरी कहीं पर,
सड़ रहे खत निर्झर।
बिखरे-बिखरे अल्फ़ाज बेहया,
बदहवास है काग़ज़ कोरे।
लगता है कहीं आग लगी है!
देखो तो, कहीं मन तो नहीं!
चेतना बिलख रही चौराहे,
घुटता कहीं दम तो नहीं!
आज विलाप थोड़ा कर लेने दो,
बहुत दबा रक्खे थे,
इन झरनों को ज़रा उबलने दो।
बह जाने दो खौलते दरिया को।
मिट जाने दो इस ज़री'आ को।
हाँ लेख भी है मिटते,
अल्फ़ाज भी है सुलगते।
शामें, शमा, शबनम भी है ढलते।
होता सब है नश्वर
चाहे छंद हो या सुगंध।
घिर आये मेघ तो लगे टूटने
लेखन के तटबंध।

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23 JAN AT 22:48

एक बार दिल तोड़ ज़रा,
मैं शायरी की किताब हो जाऊँ।
भरा जो अंदर समंदर है,
मैं जलकर विरह में भाप हो जाऊँ।
शाम और शमा को परवाने चाहिए,
मैं उस शमा की आग हो जाऊँ।
जिस ताप में तपे पतंगें,
उसमें धधक कर राख हो जाऊँ।
एक बार हृदय की धमनियों में,
तू पिघल ज़रा, मैं चाप हो जाऊँ।
स्याह लाल लाली रक्त की,
मैं रंग-के रंग में राग हो जाऊँ।
एक बार मिल ज़रा,
हवा के झोंकें सा फ़ाक़ हो जाऊँ।
तेरी छुअन को पा कर मैं,
फिर से शफ़्फ़ाफ़ और पाक हो जाऊँ।

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23 JAN AT 2:02

काश! वक़्त रुक जाए
रगों में जमें खून की तरह।
काश! ये जीवन थम जाए
शिथिल पड़ी धड़कनों की तरह।
काश! कुछ यूँ हो जाये
कि सूरज उगने के साथ ही रात हो जाये!
काश! कुछ यूँ हो जाये
बहारें फिर कलियाँ बन जाये!
ये “काश!” काश हक़ीकत बन जाये!
ये “काश!” काश ज़िंदा हो ही ना पाये!
बिखरा राह में कहीं
काश! वो जीवन फिर मिल जाये,
जहाँ रहती थी ख़ुशी,
उजियारा जग में फिर हो जाये!
काश....!

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