।।सोन चिरैया।।
मैं सोन चिरैया अपने बाबा की,इक दिन बड़ी हो जाऊंगी ।
करके सूना बाबा का आंगन ,दूर देश उड़ कर जाऊंगी ।
छोड़ माटी के खेल खिलौने ,गुड्डे गुड़िया उनके कपड़े गहने ,
छोटी सी चादर और छोटे नरम बिछोने।
वो बिना चाय की कप और प्याली,भरे से लगते थे होकर भी खाली ।
बोले बाबा एक दिन मुझसे ,कोई लेने आया है तुझको ।
तुमको उसके साथ है जाना ,जीवन भर होगा साथ निभाना ,
में समझ गई की यही है वो ,मेरे सपनों का राजकुमार ।
पलको पर रखेगा मुझको और ,मुझको करेगा जीवन भर प्यार ।
बाबा बोले तो मैं चल दी, वर्ना मुझको थी किस बात की जल्दी ।
हाथ में मेहंदी मैने रचाई,उसी शाम हो गई सगाई।
कल तक मैं थी इस घर की,अगले ही दिन हो गई पराई।
आसमान में उड़ चली मैं,करके सात समंदर पार।
पीछे छोड़ चली बचपन सारा,छूटे बाबा और उनका प्यार।
मन में था संकोच बहुत पर, नियति पर थोड़ा सा विश्वास।
देर शाम पहुचे हम दोनो,और खाकर पीकर सो गये।
सुबह जो मेरी नींद खुली तो,इनका कुछ भी पता नही था,
जिस बिस्तर पर में थी सोइ,उस पर कोई और भी था।
समझ पाती मैं कुछ इससे पहले,राजकुमार कमरे में आया।
कह पाती कुछ इससे पहले, हाथ मरोड़कर उसने धमकाया।
झर झर बहने लगे मेरे आंसू, पता नहीं किस्मत नें क्यों,
मुझको ऐसा दिन दिखलाया।
उपेंद्र कुमार, वाराणसी।
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