फ़लक को चूमता जो हर रोज बनके हौसले की मिसाल
फिर क्यूँ छिप जाता है कुओं में जब ढल जाती है शाम?
कहते है लोग उसे पसंद है कहीं रहना दूर गुमनाम,
ना ज़ाने फिर ढूंढ़ता वो यही शोर जब आती कयामत की रात?
कोई कहता उसे मोर सा खूबसूरत,किसी को लगता वो खूंखार अक़ाब,
अंदाजों पर लगाम लगाके एक दफा उठाओ तो उसके चेहरे से नक़ाब
जरूर होगा वो वाक़िफ़ उस पल से,
जब होता ना पास लगाने को कोई मरहम,
फ़िज़ां से करके गुज़ारा उम्रभर,
रो देता है वो मौत की रात याद करके अपने ज़ख्म।
राख बनकर जिंदा होना तो फितरत है उसकी,
आज मरने का उसे गम नही, है उलझन दिल-ओ-दिमाग़ में
बदलेगा कुछ इस दफा या फिर शुरु होगी वही तन्हा जिंदगी?
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