इकतरफा रिश्तों का बोझ बहुत भारी होता है
न चाहते हुए आख़िरकार अंत में सब बिखर ही जाता है-
न दिल न कोई हसरत फिर भी ज़ख्म-ए-दिल दर्द की इंतहा नहीं,
अजीब है ये जिंदगी का फलसफा उम्र गुजर गई न लोग समझ आए न ये जिंदगी .....-
खुद की ही नज़रों में कितने गिर गए हैं
जीने की चाहत में मर गए
अच्छी नहीं थी जिंदगी मगर बोझिल भी नहीं थी
आज गुनाहों से भर गए
किससे मांगे माफी गुनहगार कोई और नहीं
खुद के यकीन पर उलझ गए
क्षणिक आकर्षण का शिकार ऐसे बनें
उसकी खुशी के लिए सब कर गए
नहीं कि अपने आत्मसम्मान की चिंता कभी
सिर्फ उसके साथ के लिए हर बेइज्जती सह गए
उसे मेरा साथ नहीं चाहिए था कभी
मगर उसकी शर्त पर जूतों पर ही रह गए
आकर्षण कभी प्रेम नहीं बन सकता
इतनी सी बात क्यों नहीं समझ पाए
कही से जलील करने की कसर नहीं छोड़ी
कितने मजबूर थे सब सह गए
बस अब नहीं होता सहन उसने मेरी औकात बता दी
बता दिया मै सिर्फ जूतों पर रहने के लायक हूं
नहीं हूं किसी रिश्ते के लायक खुद और सबके लिए बोझ हूं
जो तेरे साथ रहे सबको खा गई
इतनी भी मजबूर नहीं अब इन सांसों के बोझ सहने के लिए
सबको मुक्त कर दिया इस जीवन से कोई जुड़ाव नहीं किसी से
क्या इस शरीर से मुक्त होकर भी मैं मुक्त हो पाऊंगी
अपने अंदर की घुटन से उन सवालों से आखिर क्यों
क्या बिगाड़ा था मैने किसी का क्यों मुझसे ऐसे जुड़े
मेरे ज़ख्मों का मरहम बनकर उन्हें भरने की कोशिश हो
सबकुछ गहराई से जानकर मेरे दर्द मेरे ज़ख्मों को
इतनी बेरहमी से क्यों कुरेदने लगे क्या मैं इंसान नहीं
दर्द नहीं होता मुझे शायद अब नहीं होता
तभी जीने की चाहत मौत में बदल गई
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इस कदर बसे हो रूह में रहनुमा कहूं या हमसफर
यूं तो दूरियां है मीलों की, होते नहीं पल भी नज़रों से ओझल-
The obsession of attachment kept destroying me, sometimes by getting bound in relationships, sometimes by forcibly tying myself without any relationship, I got nothing anywhere, hands were empty, completely empty in the desire to smile for a few moments, still I am breathing, what a strange story I am, which no one could read, the shine on the upper cover of the book kept attracting everyone, everyone wanted to touch it, no one wanted to read it, now I want to burn this book along with its upper cover, the end of the story is necessary now...
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जीवन इक बोझ सा क्यों है ,क्यों खालीपन रहा सबकुछ करके भी खुश क्यों नहीं रह सकी आखिर श्राप क्यों है ये जीवन ,क्यों जिंदगी का खालीपन कभी नही गया,क्यों अधूरी रही पूरी जिंदगी हमेशा दूसरों की खुशी में खुश रहने की कोशिश भी अधूरी रही ,आखिर क्यों है ये जीवन क्यों जीना दूसरों के लिए ,मेरा कुछ भी कभी मेरा नहीं रहा सब छिनता गया धीरे धीरे क्या सांस लेना जीवन है ,बहुत मन भर गया जीवन से,बहुत अभागन हूं दूर जाना चाहती हूं ,मुक्त होना चाहती हूं इस जीवन से अब कोई इच्छा नही ये सांसें बोझ है हर एक दिन जैसी थोड़ा थोड़ा खत्म हो रही हूं,शायद अभी कुछ कर्मों का लेख बाकी रह गया है इसलिए मुक्ति नहीं अभी ,ऐसे ही थोड़ा थोड़ा मरना है, बेरंग जिंदगी के दिखावटी रंग भी उड़ गए अब सब कुछ रंगहीन है,हर रंग श्राप हो गया, बेरंग जिंदगी को दिखावटी रंगों से ओढ़े रखा,वो सारे रंग छीन लिए,ईश्वर की हर सजा स्वीकार थी,ये सजा कैसे माफ कर दूं,ऐसा क्या गुनाह किया था, बस एक उपकार करके ही माफी है मुझे इस जीवन से मुक्त कर दे
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जीवन मे किसी रिश्ते में परिपूर्ण नहीं रही
हर रिश्ते में बोझ ही बन कर क्यों रह गयी
गलतियां करने की उम्र में सहना सीख गई
बचपन की मासूमियत से दूर हो गयी
रिश्ते दूर न हो अपनेपन के मोह में उलझी रही
दूसरों की गलतियां हमेशा नज़रंदाज़ करती रही
गलत न होकर भी गलती मान लेना आदत बना ली
हर बार हर जगह रिश्ते न बिखरे खुद झुकती गयी
खुद पर हुए गलत को भी नज़रंदाज़ करती रही
कभी रिश्तों को खोने के डर से कही लोगों के डर से
जैसे हारने की सबसे हमेशा आदत बना ली
रिश्तों को बचाने के लिए हमेशा झुकती रही
कोई अहमियत नहीं फिर भी हाथ पैर जोड़ती रही
पर दिल में कही हमेशा एक दर्द रहा, क्या कभी
कोई मुझे भी कुछ समझेगा क्या कभी किसी के लिए
इतनी अहमियत बना पाऊंगी,क्या कभी कोई दिल से अपना पायेगा मुझे,क्या कभी मुझे भी किसी से गुस्सा होने का मौका मिलेगा ,क्या कोई मेरी माफी पर मेरा कभी हाथ पकड़ कर गले लगा कर ये कह पायेगा की नही इसकी जरूरत नहीं, गलती भी जिंदगी का हिस्सा होती है लेकिन रिश्तों की बुनियाद माफी नहीं होती-