** द्वैत के बिना, अद्वैत नहीं ! **
तुलसीदास जी का एक दोहा है कि- यदि अद्वैत को द्वैत के बिना, कोई बोल दे ! तो मैं उसका चेला ! अद्वैत का वर्णन भी, द्वैत के बिना, नहीं हो सकता है।
अद्वैत् में जो अकार लगा हुआ है, उसके लिए,पहले द्वैत की स्थापना करोगे, और फिर जब उसका निषेध करोगे, तब न होगा अद्वैत !
शंकराचार्य जी के दक्षिणामूर्ति स्तोत्र की व्याख्या के अन्त में सुरेश्वराचार्यजी ने एक श्लोक लिखा है, इनका लेखन शंकराचार्य जी के समान ही मान्य है। जिसे मंगलाचरण में हम लोग बोलते हैं।
अद्वैत के लिए इस श्लोक से अच्छा और कोई उदाहरण नहीं हो सकता है ---
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्ति भेद विभागिने ।
व्योमवत् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।
ईश्वर, गुरू, और आत्मा में तीन चेतन, तीन नहीं हैं, इनमें देह का विभाग तो है, परन्तु इन तीनों में आकाश के समान, जो चेतन तत्त्व है --
वही दक्षिणामूर्ति है। वही परमात्मा है, और वही ब्रह्म है।
उन्हें हम नमस्कार करते हैं।
परम् पूज्य स्वामी श्रीविश्वात्मानन्दजी महाराज के,
अद्वैतकारिका प्रवचन् से- १.के आरम्भ में।

- उदय प्रताप जनार्दन सिंह