जैसे लड़के वाले हर बात पर अपने बेटे का पक्ष लेते हैं,
उसे सही-गलत से परे रखकर सिर उठाकर खड़े रहते हैं,
वैसे ही कभी लड़की के माँ-बाप भी
बिना डरे, बिना झुके, अपनी बेटी के साथ खड़े हो जाएं
तो बेटी कभी खुद को कमजोर न समझे।
क्यों हमेशा लड़की को ही समझौते की दीवार से टिकाया जाता है?
क्यों उसके आँसुओं से पहले
उसके जवाब ढूंढे जाते हैं?
क्यों हर बार बेटी को ही
समझौते की थाली पर अपनी इज्जत परोसनी पड़ती है?
क्यों उसे ही रिश्ते बचाने का बोझ उठाना पड़ता है?
कभी-कभी बेटी के आँसू,
सिर्फ साथी के कारण नहीं होते
बल्कि इसलिए होते हैं
क्योंकि उसके अपने ही
उसका पक्ष नहीं लेते।
अगर एक बार उसके माता-पिता डटकर कहते
"हमारी बेटी ग़लत नहीं है"
तो शायद वह इतनी टूटी हुई न होती।
शायद वो हर बार ख़ुद को मजबूर न समझती।
और शायद…
वो ये न कहती —
"मैं अकेली हूं, और मेरे पास कोई नहीं है।"-
काश महिला पुरुष से अधिक शक्तिशाली होती,
तो शायद उसे हर रोज़ अपनी आत्मा को टुकड़ों में टूटते हुए न देखना पड़ता।
हर वह घड़ी जब एक स्त्री पर हाथ उठता है,
तब केवल उसका शरीर नहीं, उसका अस्तित्व भी कांप उठता है।
समाज ने शक्ति को मांसपेशियों से तौला है,
पर भूल गया कि सहन करना भी एक तप है
और यह तप सिर्फ एक नारी ही कर सकती है।
वह जन्म देती है, दर्द सहती है, त्याग करती है,
फिर भी उसे ही कमज़ोर कहा जाता है।
जिसने जीवन रचने की क्षमता पाई हो,
क्या वह वास्तव में कभी कमज़ोर हो सकती है?
पर अफ़सोस,
शारीरिक ताकत के नाम पर उसकी आत्मा को कुचला गया।
उसे सिखाया गया चुप रहना, सहना, और ‘इज्ज़त’ बचाना
जैसे इज्ज़त उसके तन से जुड़ी हो, न कि उसकी आत्मा से।
अगर महिला पुरुष से अधिक शक्तिशाली होती,
तो शायद उसके आंसुओं को अनदेखा न किया जाता,
शायद उसके घावों पर सवाल न उठते,
और शायद…
उसे हर बार यह साबित न करना पड़ता कि वह भी इंसान है।
शक्ति की असली परिभाषा क्या है?
डर या सम्मान ?
और अगर डर है तो हाँ शायद..
काश महिला पुरुष से अधिक शक्तिशाली होती।
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आज की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में करियर एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। बचपन से ही हमसे पूछा जाता है -- "बड़े होकर क्या बनोगे?" डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, या फिर कोई और प्रतिष्ठित पद। धीरे-धीरे हम यह मानने लगते हैं कि जीवन का असली उद्देश्य केवल एक अच्छा करियर बनाना है। पर क्या वास्तव में यही जीवन का सार है?
सच्चाई यह है कि करियर जीवन का एक हिस्सा है, लेकिन सम्पूर्ण जीवन नहीं। जीवन रिश्तों का, भावनाओं का, अनुभवों का, और आत्मिक शांति का भी नाम है। एक अच्छी नौकरी मिल सकती है, पर क्या वह हमेशा सुकून देगी? अगर हमारे पास अपनों का साथ न हो, आत्मसंतोष न हो, तो वह सफलता अधूरी सी लगती है।
हम भूल जाते हैं कि हमारे माता-पिता की मुस्कान, दोस्तों की हँसी, बच्चों की किलकारियाँ और आत्मा की शांति भी जीवन का मूल है।
जीवन में संतुलन जरूरी है। न तो करियर को नज़रअंदाज़ करें, न ही जीवन के बाकी पहलुओं को। हम हर एक पल की अहमियत को समझे, क्योंकि समय लौटकर नहीं आता।-
माँ की ममता, बाप की छांव,
उनके बिना सूनी लगती हर ठांव।
पर क्या करें, वक्त का है ये खेल,
सपनों की खातिर निकल पड़े अकेले रेल।
संघर्ष की राह चुनी तो ये भी सहना पड़ा,
घर के दरवाज़े से दूर शहर में रहना पड़ा।
पर यही तो सफर है, मंज़िल की ओर,
जहाँ हर दूरी में छिपा है प्यार भरपूर।
आज उनसे दूर हैं, कल उनके पास होंगे,
हाथों में कामयाबी और आँखों में आँसू होंगे।
~ ट्विंकल-