कोई था मेरा जो काफी रूठ के गया,
काफी तोड़ के गया, काफी टूट के गया,
रोक लेना चाहा उसे हाथ पकड़कर,
पर वो था जो हाथों से छूट के गया,
कोई था अजीज मेरा खुदका गया,
यादों में था दम मेरा घुटता गया,
यकीन था कि नहीं जायेगा वो कहीं भी,
फिर लोगों से यकीन मेरा उठता गया,
जितनी चाहत दिल उतना दुखता गया,
सिगरेट के कश मैं फिर फूंकता गया,
हालातों के आगे मैं भी झुकता गया,
रुकना नहीं था फिर भी रुकता गया...-
कश्मीर में फिर से हुई गोली बारी,
पहले धर्म पूछा, फिर गोली मारी,
शांति चाहने वालों की टोली हारी,
पहले धर्म पूछा, फिर गोली मारी,
आंखों में आंसू, हुई पलकें भारी,
कश्मीर में होने लगी सड़कें खाली,
पक्ष - विपक्ष में बयानबाजी जारी,
झूठे सेक्युलरिज्म के कारण है हमने बाजी हारी,
जब मरने वाले का था धर्म तो मारने वाला का है क्यूं नहीं ?
तेरा सेक्युलरिज्म तब तक जब तक मरने वालों में कोई तेरा नहीं या तू नहीं,
धर्म पे आधारित अपराधों और अपराधियों को छुपा नहीं,
तेरी आँखों पे चढ़ा है एक चश्मा जो सच्चाई को पाये देख और छू नहीं,
धर्म से बड़ा होता वतन पर शायद सबके लिए नहीं,
हमने शायद पिछले हमलों से सबक ही लिए नहीं,
आतंकी की मौत पे जनाजे निकले लाखों में,
ऐसा है क्योंकि चार चांटे हमने वक्त पर कसके दिए नहीं।
मीडिया टीआरपी की भूखी, नहीं दिखाती वो खबरें जिनमें मसाला नहीं,
क्यों रखें किसी और मुल्क के वासियों को, ये देश है, धर्मशाला नहीं,
जिसने भी जान गंवाई धर्म की वजह से, क्या सेक्युलरिज्म से उन्हें कर दोगे जिंदा ?
जिन्होंने किया ऐसा उन्हें मिट्टी में मिला दो, नहीं चाहिए कोई कड़ी निंदा।
- तुषार शर्मा-
हम क्या हुआ करते थे और क्या हो गए,
दिन वो सुहाने अब हवा हो गए,
राहों पे भटके कहीं हम खो गए,
ख्वाब आंखों में बंद कर हम सो गए,
हुई अगली सुबह तो याद रहा नहीं ख्वाब कोई,
बीती बातें भूतकाल उसका क्या करे हिसाब कोई,
कुछ सवाल अंतर्मन में, नहीं जिनका जवाब कोई,
जिंदगी को पढ़ा तो लगी अजीब सी किताब कोई,
मैं सन्नाटों में रहा तो लगी शोर की तलब,
गीत गुनगुनाऊं, है किशोर की तलब,
इस दौर में जाने किस दौर की तलब,
मिले रात से सबक, तभी भोर की तलब।
- तुषार वत्स
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ज्यादा नहीं बस सब कुछ थोड़ा चाहिए,
ना किसी का कुछ भी छोड़ा चाहिए,
माया के मोह में मतवाला सा मन,
पर मुझे बेच के सोने को एक घोड़ा चाहिए,
भला कौन जाने है इधर बसेरा कहां,
ठिकाने की समझ नहीं और हुए हम रवां,
धुंधली धुंधली दृश्यता, आंखों में धुंआ,
जमीन हुई हासिल तो फिर छूटा आसमां,
हौंसले से घौंसले की हिफाजत कर,
रिश्तों में किश्तों की ना सियासत कर,
अंधेरा करे ओझल नभ पे दिवाकर,
पहले मिलते खोकर, फिर खोते पाकर।
- तुषार वत्स-
मैं उनके मतलब की बात करता तो अच्छा इंसान कहलाता,
अपने मतलब की बात करदी तो मतलबी कहलाया।
– तुषार वत्स-
तुम प्रेम में विश्वास क्यों नहीं करते, इतनी नफरत क्यों करते हो प्रेम के नाम से ?
प्रेम, कौनसा प्रेम ?
वही आधुनिक प्रेम क्या जो स्वार्थी मन करता है,
वही जो मिनटों में परवान चढ़ता है और कुछ ही दिनों में धूमिल भी हो जाता है,
वही प्रेम क्या जो शारीरिक, भावनात्मक अथवा आर्थिक चाहतों की पूर्ति मात्र के लिए स्वांग भर होता है,
जहां ना एक दूजे के चेहरे की हंसी सच्ची है, ना रोना और ना एक दूजे का साथ ?
जहाँ इंसान जिस्म बदलता है, वही प्रेम क्या ???
वही प्रेम क्या जहां एक के साथ संबंध में होते हुए दूसरे के साथ हमबिस्तरी के स्वप्न देखे जाते हों और इसे आजादी का नाम देके अपने दूषित चरित्र को छुपाने की कोशिशें होती हों।
नहीं मानना है ऐसे प्रेम को प्रेम और नहीं करना है ऐसे प्रेम पर यकीन जहां प्रेम के अलावा हर वो चीज होती हो जो प्रेम को बदनाम करती हो।-
हमने एक खत खुद को लिखा जब उसको भेजे खत का कोई जवाब ना आया,
खत में लिखा कि वो मोहब्बत ही क्या जिसमें भावनाओं का सैलाब ना आया,
होती हैं कुछ मछलियां ऐसी भी जिन्हें सागर न मिला, नदियां न मिली, तालाब ना पाया,
होती हैं कुछ रातें ऐसी भी जब आंखों ने चाहा पर कोई ख्वाब ना आया,
सोचा, जब तक वो संग थे सब हमें हासिल था,
खुद के टुकड़े करवाके दिल नाम पूछे कातिल का,
इस तरह क्या मैं यूं टूट जाने के काबिल था ?
मैं अपना खत पढ़ रहा था, इतने में वो घर के भीतर दाखिल था,
मेरा भेजा खत उसके हाथ में था, वो खड़ी मुस्कुराई,
ऐसा लगा जैसे किसी मुर्दे की सांसें लौट आई,
मैं चिल्ला दिया उसपे कि तेरे चक्कर में चोट खाई,
वो बोली क्या मैनें कभी तुम्हारी यूं गलतियां गिनाई ?
तुमने भी तो रुखसत किया मुझे मेरा दिल दुखा, दिया दर्द मुझे बेहिसाब,
मैं गई थी कुछ दिन के लिए, ताकि तुम पूरी लिखलो अपनी कविताओं की किताब।-
वो काफी मजबूत दिखता था, उसकी मूंछों पर ताव था,
पर वो भी कहीं नरम था, दिल को कचोटता कोई घाव था,
उसको धूप की आदत हो गई थी, अब उसे शिकायत नहीं थी,
पर उसको भी कहीं ना कहीं इंतजार था छांव का,
वो चले चलता है ठहराव के साथ, कभी कभी लेता दौड़ भी,
उसके साथ दौड़ता है छाला उसके पाँव का,
वो शहर सा असंवेदशील, अशांत हो चुका था,
अब उसे पुकारता था रास्ता उसके गाँव का।
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